________________
६३०
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
संख्येयादिगुणाद्वापि नान्यथेति विनिश्चयः । लेश्यांतरस्य कृष्णातोऽशुभस्यान्यस्य बाधनात् ॥ ११ ॥ तत्कृष्णले श्यतः स्थानाद्धीयमानो विहीयते । कृष्णायामेव नान्यस्यां लेश्यायां हेत्वभावतः ॥ १३ ॥ चानन्तादिभागाद्वा संख्यातादिगुणात्तथा । हीयते नान्यथा स्थानषटुकसंक्रमतोसुभृत् ॥ १४ ॥ यदानंतगुणा हानिः कृष्णायाः संक्रमस्तदा । नीलाया उत्तमस्थाने तल्लेश्यांतरसंक्रमः ।। १५ ॥
तथा संक्रमणसे छहों लेश्यायें साधने योग्य हैं। संक्लेश और विशुद्धिसे उत्पन्न हुये स्थानोंसे लेश्याओं का संक्रमण होता है । स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण यों संक्रमण के दो भेद हैं । कृष्ण लेश्यामें बढते हुये क्लेशको प्राप्त हो रहे जीव के स्वस्थान संक्रमण ही होगा । अन्य लेश्याओं में संक्रमण नहीं हो सकता है । उस कृष्णलेश्यामें ही अनन्तभागवृद्धि, असंख्येय भागवृद्धि, संख्येयभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि असंख्यात भागवृद्धि और अनंत गुणवृद्धी इस प्रकार छह स्थानों में पडी हुई वृद्धि करके कृष्ण के भीतर ही अंश उपांश बढते रहते हैं । कृष्ण लेश्यासे कोई निकृष्ट स्थान नहीं हैं । जिसमें संक्लेशकी वृद्धि होजाने पर परस्थान संक्रमण होजाता । तथा यह जीव अपनी गृहीत कृष्ण लेश्या अभ्यन्तर क्रमसे उत्कृष्ट से मध्यम या जघन्य अंशों में संक्रमण करके हानिको प्राप्त होता है । अर्थात् कृष्णलेश्या सम्बन्धी उत्कृष्ट संक्लेशस्थान से अनन्तभागहानि, असंख्येयभाग हानि, संख्येयभागहानि, संख्येय गुणहानि, असंख्येयगुणहानि, अनन्तगुणहानि करके कृष्णलेश्या जघन्य स्थानोंतक स्वस्थान संक्रमण होता है । हां, संक्लेशकी विशेष हानि होजाने पर अनन्त गुणहाणि अनुसार कृष्णलेश्यावाला जीव नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान पर सक्रमण कर लेता है । वार्त्तिकों का अर्थ यह हुआ कि सबसे पहिले नियत होरहे कृष्णलेश्याके जघन्य संक्लेश स्थान अनन्तभाग, असंख्यातभाग और संख्यात भाग वुद्धियों अनुसार कृष्णलेश्या अपने निमित्त कारणों करके बरती जाती है । अथवा संख्यातगुण, असंख्यातगुण, आदि क्रमसे भी स्वकीय निमित्त कारणों अनुसार उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त बढ़ती है । अन्य प्रकारोंसे नहीं बढ़ती है । यों विशेष रूप से निश्चय कर लेना । कृष्णलेश्यासे भिन्न कोई निकृष्ट जाति की दूसरी अशुभलेश्या के होनेकी बाधा है । अतः संक्लेशकी वृद्धि होनेपर कृष्ण लेश्या में स्वस्थान संक्रमण ही हुआ तथा कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट स्थान से संक्लेश की हानिको अनुभव रहा जीव हीन होता जाता है । तब भी उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंशों में प्राप्त हो रहा कृष्णलेश्या में ही संक्रमण करता है । कारणों का अभ होजानेसे अन्य श्यामें संक्रमण नहीं करपाता है। अनन्तभाग आदि अथवा संख्यातगुण आदि