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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६२७ होपाता है। दूसरी बात यह है कि सूत्रके वाक्य प्रभेदसे व्याख्यान कर दिया गया होनेसे यथासंख्य का प्रसंग तुम्हारा चाहा नहीं हो पाता है। __पीतमिश्रपमिश्रशुक्ललेश्या द्विद्विचतुश्चतुःशेषेष्विति पाठन्तरमन्ये मन्यते, तत्र सूत्रगौरवं तदवस्यं । अथवास्तु यथासंख्यमभिसंबंधस्तथापि नानिष्टप्रसंगः। कथं ? द्वयोः युगलयोः पोतलेश्याः सानत्कुमारमाहेंद्रयोः पद्मलेश्यायाः अविवक्षातः, ब्रह्मलोकादिषु त्रिषु कल्पयुगलेषु पनलेश्या शुक्रमहाशुक्रयोः शुक्ललेश्याया अविवक्षातः, शेषेषु सतारादिषु शुक्ललेश्या पद्मलेश्याया अविवक्षातः इत्युक्तौ अभिसंबंधात् । ततो न कश्चिदार्षविरोधः। कोई अन्य विद्वान् निराले प्रकारके पाठको यों मान रहे हैं कि दो स्वर्गों में और दो स्वर्गों में तथा चार स्वगोंमें एवं चार स्वर्गों में तथा शेष स्थानोंमें पीतलेश्या और पीतमिश्रलेश्या तथा पद्मलेश्या एवं पद्ममिश्रलेश्या तथा शुक्ललेश्याको धारनेवाले देव विराजते हैं, आचार्य कहते हैं कि उस मान्यतामें सूत्रका गौरव दोष हो जाना वैसाका वैसा ही अवस्थित रहा। कोई लाभ नहीं निकला । अथवा एक बात यह है कि उक्त सूत्रका भले ही यथासंख्य तीनों ओरसे सम्बन्ध होजाओ तो भी हमारे सिद्धान्त अनुसार किसी अनिष्ट के होजानेका प्रसंग नहीं होता है । किस प्रकार सम्बन्ध करते हुये अनिष्टका प्रसंग नहीं होता है ? इसका समाधान यों है कि दो युगलों में पीतलेश्या है । किन्तु सानत्कुमार, माहेन्द्र, इन दो स्वर्गोंके कतिपय देवोंमें पायी जारही पद्मलेश्याकी विवक्षा नहीं की गयी है। तथा ब्रम्हलोक आदिक तीन कल्प युगलोंमें पद्मलेश्या है । शुक्र और महाशुक्रमें कतिपय देवोंके पायीं जारही शूक्ललेश्याकी विवक्षा नहीं करनेसे पद्मलेश्या ही कह दीगयी है । शेष ऊारले शतार आदि वैमानिकोंमें शुक्ललेश्या पायी जाती है। शतार और सहस्रारमें कितन एक देवोंके पायी जारही पद्मलेश्याकी विवक्षा नहीं कर. नेसे शुक्ल ही लेश्या कह दी गयी है । इस प्रकार सूत्र का कथन कर चुकनेपर क्रम अनुसार सम्बन्ध हो जानेसे कोई अनिष्टापत्ति नही है। तिस कारण ऋषिप्रोक्त सिद्धान्त आम्नायसे कोई विरोध नहीं आता है। लेश्या निर्देशतः साध्याः कृष्णेत्यादिस्वरूपतः। वर्णतो भ्रमरादीनां छायां विभ्रति बाह्यतः ॥२॥ अनंतभेदमासां स्याद्वर्णातरमपि स्कुटं ! एकद्वित्रिकसंख्यादिकृष्णादिगुणयोगतः ॥ ३॥ - अब ग्रन्थकार सोलह अनुयोगोंके द्वारा लेश्याओं को साधने योग्य बताते हैं। १ निर्देश २ वर्ण ३ परिणाम ४ संक्रम ५ कर्म ६ लक्षण ७ गति ८ स्वामित्व ९ साधन १० संख्या ११ क्षेत्र १२ स्पर्शन १३ काल १४ अन्तर १५ भाव १६ और अल्पबहुत्व इन सोलह अधिकारों द्वारा छहों लेश्याओं को साधलिया जाता है । प्रथमनिर्देशसे कृष्णा, नीला, कपोत,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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