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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
गमन कर रहे छत्र रहित कतिपय जनोंका भी छत्रधारीपन करके प्ररूपण कर दिया जाता है। उसी प्रकार यहां भी बहुभाग पीत लेश्यावाले जीवोंके साथ अल्पभाग पद्मालेश्या वाले देवोंका प्रतिपादन होजाता है। पद्मालेश्या वालों के साथ शुक्ललेश्या वाले अल्प देवोंका ग्रहण होजाना बन जाता है। मिश्रित अवस्था पूर्वकी ओर झुक जाती है । लोक या शास्त्रमें अन्य प्रकार प्रसिद्ध होरहे शब्दों को यौगिक अर्थानुसार स्वबुद्धिसे सुधारकर बोलनेवाला नवशिक्षित अज्ञ ही समझा जायगा । घोडे को पानी दिखा दे । छतरी वाले जारहे हैं । बम्बई बचोगे । गली मचान गारहे हैं। इन शब्दोंके स्थानपर घोडे को पानी पिलादे। छतरीवाले और कुछ छतरी रहित मनुष्य जा रहे हैं। बम्बईमें सिकरने वाली हुंडी बेचोगे । गली मचान पर बैठे मनुष्य गारहे हैं। यों कहने वाला स्याना छोकरा मूर्ख ही समझा जायगा । यदि यहां कोई यों शंका करे कि यों तो सूत्रकार द्वारा "चतुश्चतुश्शेषेषु" इस प्रकार न्यारा पाठ करने पर भी उक्त व्याख्यान कर देने से कोई दोष नहीं आता है। फिर जो हमने पहिले कहा था कि चार चार और शेषोंमें पीत लेश्या वाले पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले देव निवसते हैं. इसका आपने खण्डन क्यों किया? व्याख्यान कर देनेसे आर्ष मार्गका कोई विरोध नहीं आता है। यहां भो तो आपको व्याख्यान करना ही पडा। ग्रन्थ कार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि दो युगल तीन युगल और शेष शतार आदिकों में यथाक्रमसे पीत लेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले देव हैं। यों पाठकरना तो अनिष्ट शंकाकी निवृत्तिके लिये सूत्रकारने किया है । 'चतुश्शेषेषु" इस प्रकार पाठ करने पर तो चार चार का कार ऊपर सद्भाव मानने पर अनिष्ट अर्थ होजाने की शंका होसकेगी। हां, उक्त सूत्र अनुसार 'द्वित्रिशेषेषु" यों ठोक रचनापूर्वक कथन करनेपर तो उस शंकाको निवृत्ति की जाचुकती है। फिर भी कोई यों कटाक्ष करे कि इस प्रकार न्यास करने पर भी यथासंख्यका प्रसंग हो जानेसे यहां भी अनिष्ट अर्थकी शंका होना तदवस्थ है । आपत्तिका निवारण करते हुये भी आपतियोंसे छुटकारा नहीं मिला। दो युगलोंमें पीत लेश्या कहने पर सनत्कुमार माहेन्द्रोंमें पूर्णरूपसे पीत लेश्याका विधान होगा। वहां कतिपय देवोंके पायी जारही पद्मलेश्याकी विधि नहीं होसकेगी । इसी प्रकार शतार, सहस्रार, स्वर्गोमें शुक्लले श्यावाले कतिपय देवोंको भी पद्मलेश्याधारी बनना पडेगा । यह अनिष्ट शंकापिशाची खडी हुई है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि सत्र में पडे हये दो आदिक शब्दों के भीतर वीप्सा अर्थ गभित होरहा है। जैसे कि द्विभोजन, द्विपठन त्रिजपन आदि शब्दोंके भीतर वीप्सा अर्थका समावेश है। दिन दिनमें जिस मनुष्यके दो भोजन है, या जो छात्र प्रतिदिन दो दो पाठ पढता है, अथवा जो धर्मात्मा प्रतिदिन तीन तीन बार जाप देता है, वे द्विभोजन, द्विपठन, त्रिजपन, पुरुष हैं। अतः द्विभोजन इत्यादिक शब्द वीप्सा अर्थको अन्तरंगमें गभित कर वखाने जाते हैं। उसी प्रकार दो, तीन, आदिक शब्द भी यहां ऊपर दो दो कल्पोंमें तीन तीन कल्पोंमें और शेष शेष स्थानोंमें इस प्रकार वीप्सा अर्थ को गभित किये हुये वखाने जाते हैं। तिस कारण केवल पीताका द्विके साथ और पद्माका केवल विके साथ तथा शुक्लाका अकेले शेषोंमें ही अन्वय होजाना यों यथासंख्यका प्रसंग नहीं