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तत्वार्थचिन्तामणिः
माहेन्द्र में पद्मलेश्या पायी जाती है । और शतार सहस्रारों में शुक्ललेश्या भी देवों के सम्भव रही है । इसके उत्तरमें श्री. विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि पीताके ग्रहण करनेसे निकटवर्ती पद्माको मिला कर पीता और पद्माका संग्रह होजाता है । इसी प्रकार पद्मालेश्याके ग्रहण करके परली ओर शुक्लाको खेंचकर पद्माशुक्ला दोनों लेश्याओं का संग्रह कर लिया जाता है । यों हम और अन्य विद्वान भी ऐसे अवसरोंपर सन्धि स्थानों में निवास करनेवाले जीवोंके लिये इसी ढंग ह । अर्थात् जैसे कि भिन्न भिन्न भाषाओंको बोलने वाले प्रान्तोंके बीचमें वस रहे मनुष्य कुछ इस प्रान्त और कुछ उस प्रान्तकी मिश्रित भाषाको बोलते हैं। दिन और रात्रिके मध्य में कुछ अंधेरा और कुछ प्रकाशकों मिश्रण अवस्था पायी जाती है, उसी प्रकार पीतलेश्याशब्द सौधर्म, ऐशान, देवोंके लिये स्वतंत्र है । और ब्रम्ह, ब्रम्होत्तर, लांतवका पिष्ठोंके लिये शुद्ध पद्मलेश्या रक्षित है। फिर भी मध्यवर्ती सानत्कुमार, माहेन्द्रों में बहुभाग पीतके साथ अल्प भागमे पद्मश्याका भी विधान किया गया से । एवं कापिष्ट पर्यन्त चार स्वर्गो में शुद्ध पद्मलेश्या और आत आदि अच्युत पर्यन्तों में शुद्ध शुक्ललेश्याकी विधि होते हुये भी मध्यवर्ती शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रारोंमे बहुभाग पद्मलेश्या और अल्प भाग में शुक्ललेश्याकी विधि कर दी जाती है । संक्षेप कथन करने वाले सूत्रकार भला छोटेसे सूत्र में अनेक सन्धिस्थानों का निरूपण कैसे कर सकते हैं ? पूर्वं निषधसे उदय होकर भ्रमण करते हुये सूर्यका पश्चिम निषध पर अस्त होजानेकी दिवसीय अवस्थाओं अनुसार होने वाले अनेक प्रकाशोंके तारतम्यका स्थूल दृष्टिसे वर्णन किया भी जासके, किन्तु दिन और रात की मिश्रण अवस्थाओं का प्रकाश और अन्धकार से मिश्रित निरूपण तो आपाततः ही किया जासकता है । " तन्मध्यपतितस्तज् ग्रहणेन गृहयते, संख्यात, असंख्यात, अनन्त, भेद प्रभेद वाले परिणामोंकी मध्यम अवस्थाओंको कहाँ तक कहा जाय । बिना कहे ही अर्थापत्या उनको समझ लिया जाता है ।
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कथं ! तथा लोके शब्दव्यवहारदर्शनात्। छत्रिणो गच्छंतीति यथा छत्रिसहचरितानामछत्रिणामपि छत्रिव्यपदेशात्। पाठांतरेपि यथा व्याख्यानाददोष इति चेत् न, अनिष्टशंकानिवृत्यर्थत्वात् द्वित्रिशेषेष्विति पाठस्य, चतुःशेषेष्विति तु पाठे चतुर्णां चतुर्णामुपर्युपरिभावेऽनिष्टः शंक्येत तन्निवृत्तिर्यथान्यासवचने कृता भवति । यथासंख्यप्रसंगादत्राप्यनिष्टमिति चेन्न, व्यादिशब्दानामंतनतवीसार्थत्वाद्विभोजनादिवत् । दिने दिने द्विभोजने यस्य स द्विभोजन इत्यादयो यथान्तनतवीप्सार्यांस्तथोपर्युपरि द्वयोर्द्वयोस्त्रिषु त्रिषु शेषेशु शेषेष्वित्यंतनतवीप्सार्था व्यादिशब्दा इह व्याख्यायंते, ततो न यथासंख्यप्रसंगो वाक्यभेदाव्द्याख्यानाच्च ।
कोई तर्की प्रश्न करता है कि पीता ग्रहण करके पीतासे न्यारी पद्माका या पद्मा कह देने से पद्मा भिन्न शुक्लाका भी ग्रहण भला किस प्रकार होसकता है ? घटका निरूपण कर देने मात्र घटभिन्न पदार्थका प्रतिपादन कथमपि नहीं होसकता है । इस प्रश्नके उत्तरमें ग्रन्थकार कहते हैं कि हम क्या करें । लोकमें तिस प्रकार के शब्दजन्य व्यवहार हो रहे देखे जाते हैं । जिस प्रकार कि छत्रों ( छतरी) को धारने वाले जारहे हैं, यों कह देनेसे छत्र धारियोंके साथ
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