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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, इस प्रकार स्वरूपसे लेश्यायें साधने योग्य हैं । दूसरे वर्ण यानी रंगसे द्रव्य लेश्यायें वा स्वरूपसे भोंरा आदिकों की छाया को धारती हैं । अर्थात् - शरीरविपाकी वर्णं नाम कर्म प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुआ कायका रंग द्रव्यलेश्या है। भौंरा के रंगके समान काली कृष्णलेश्या है । नीलमणि या मयूर कण्ठके रंगको धार रही नील लेश्या है। कबूतर के समान रंगको प्राप्त होरही कापोती लेश्या है। सुवर्णकी सी छाया पीत लेश्याकी है | कमलके समान पद्मलेश्याका रंग है । शंख के समान भूरी कांतीवाली शुक्ललेश्या है । इन लेश्याओं के तारतम्यको लिये हुये अन्य अनन्त भेदवा वर्ण भी स्पष्ट रूपसे हो जाते हैं । जो कि एक, दो, तीन, आदि संख्यात या असंख्यात आदि अविभाग प्रतिच्छेदस्वरूप गुणों के योगसे इन द्रव्यलेश्या ओं के अनन्त भेद हैं । भावार्थ-लेश्या नामक पर्यायों में सख्यः ते, असंख्याते, और अनन्ते अविभाग प्रतिच्छेदों की हानि वृद्धि अनुसार अबान्तर भेद अनन्त होजाते हैं । एक समय में होनेवाली एक पर्याय एक भेद गिना जायगा । चक्षु इन्द्रियों के प्रत्यक्ष योग्य होने की अपेक्षा लेश्याओं के संख्याते भेद हैं । और स्कन्ध जातिकी अपेक्षा असंख्याते भेद हैं । किन्तु रंगीली परमाणु या अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा लेश्याओं के अनन्तानन्त वर्णभेद हैं।
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तथातः परिणामेन साध्या जीवस्य तत्त्वतः । स चासंख्यात लोकात्मप्रदेशपरिमाणकः ॥ ४ ॥ तत्कषायोदयस्थानेष्वि यत्सूकृष्टमध्यम- । जघन्यात्मकरूपेषु क्लेशहान्या निवर्तनात् ॥ ५ ॥ कृष्णादयोऽशुभास्तिस्रो विवर्तते शरीरिणः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टेष्वंशांशेषु विवृद्धिः ॥ ६ ॥ विशुद्धेरत्तरास्तिस्रः शुभा एवं विपर्ययात् । विशुद्धिहान्या संक्लेश वृद्ध्या चैव शुभेतराः ॥ ७ ॥ एकका चाप्यसंख्येयलोकात्माध्यवसायभृत् । लेश्या विशेषतो ज्ञेयाः कषायोदय भेदतः ॥ ८ ॥
तिसी प्रकार तीसरे अनुयोग परिणाम करके लेश्यायें साधने योग्य हैं । वस्तुतः विचारा जाय तो जीवके अभ्यन्तर वर्त रहे परिणाम करके लेश्यायें साधी जाती हैं । और वह जीवके परिणाम असंख्याते लोकाकाशों के प्रदेश स्वरूप असंख्याता संख्यात नामक परिमाणको