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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ६२१ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ दो, तीन, और शेषयुगलों में पीत, पद्म, और शुक्ल लेश्या को धारनेवाले देव निवास कर रहे विराजते हैं। अर्थात् सौधर्म ऐशान और सनत्कुमार माहेन्द्र इन दो युगलों में पीत लेश्या है। ब्रह्मब्रह्मोत्तर, लांतव कापिष्ठ, शुक्र महाशुक्र, इन तीन युगलों में पद्मलेश्या है। और शेष ऊपर के विमानों में देवोंके शुक्ललेश्या है । ननु च पूर्वमेतद्वक्तव्यं तत्र पुनर्लेश्याभावात् सूत्रस्य लाघवोपपत्तेः "आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्याः,, ततः " पीतपद्मशुक्ला द्वित्रिशेषेष्विति,, । तदसत्, तत्र सौधर्मादिग्रहणे सूत्रगौरवप्रसंगादग्रहणेऽभिसंबंधानुपपत्तेः संक्षेपार्थमिहेव वचनोपपत्तेः। यहाँ कोई पण्डित आक्षेप करता है कि इस सूत्र को पहिले ही कहना चाहिये था। वहाँ लेश्या शब्द विद्यमान है। फिर लेश्या शब्दके नहीं उपादान करने से सूत्रका लाघव गुण बन जाता है। देखो, आदितस्त्रिष पीतान्तलेश्याः, आदि से तीन निकायों में पीत पर्यत लेश्या वाले देव हैं। इस सूत्र के लगे हाथ ही उससे पीछे " पीतपद्मशुक्लाद्वित्रिशेषेषु, यों सूत्र बनाकर पूनः लेश्या शब्द नहीं देना पडा। अतः गणकृत और परिमाणकृत लाघव सेंत मेंत प्राप्त होजाता है। ग्रन्थ कार कहते हैं वह आक्षेप करना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि वहाँ तीसरे सूत्र से आगे ही सौधर्मेशान आदि वैमानिकों के प्रतिपादक लम्बे सूत्रका निरूपण कर देने पर सूत्र के गौरव दोष का प्रसंग होता है । यदि सौधर्मशान आदि सूत्रका वहाँ तीसरे, चौथे, सूत्र के अवसर पर कण्ठोक्त उपादान नहीं किया जायगा तो लाघवार्थ वहां किये जाने योग्य " पीतपद्मशुक्ल लेश्या द्वित्रिशेषेषु" इसका ठीक ठीक सम्बन्ध कर देना नहीं बनसकेगा। इस कारण बढ़िया संक्षेप के लिये सौधर्म ऐशान आदि का निरूपण करचुकने पर यहाँ ही संक्षेप के लिये इस सूत्र का निरूपण करना सधता है। वस्तुतः विचारा जाय तो आक्षेपकार की अपेक्षा सूत्रकार को संक्षेपविधान कः अधिक लक्ष्य है। अतिथिको सम्पूर्ण मिष्ट भोजनों का आद्य बीज समझाते हुये पोंडे की एक पमोली परोस देने से उसकी अनेक स्वादपूर्वक क्षुधानिवृत्ति नहीं होजाती है । तथा सभी प्रकार के वस्त्रों का मूल कारण विनोलेको दे देने से जामाता का शरीराच्छादन पूर्वक शोभा बढाते हुये शीतबाधा निवारण नहीं होसकता है। ऐसा लाघव भी ओछेपन का सम्पादक है। पीतपद्मशुक्लानां द्वंद्वे पीतपद्मयोरौत्तरपदिकं हृस्वत्वं द्रुतायान्तपरकरणान्मध्यमविडंबितयोरुपसंरव्यानमित्याचार्यवचनदर्शनात् मध्यमाशद्वस्य विडंबितोत्तरपदे द्वंद्वेपि हूस्वत्वसिद्धः। ततः पीतपद्मशुक्ललेश्याः येषां देवानां ते पीतपद्मशुक्ललेश्या इति द्वंद्वपूर्वान्यपदार्या वृत्तिः । पीता च पद्माच शुक्ला च यों पीता और पद्मा तथा शुक्ला पदों का इतरेतर द्वन्द्वसमास करने पर पीता और पद्मा पदों का उत्तरपद की अपेक्षा हस्व होना बन जाता है । अतः द्वन्द्व समास में पुंवन्दाव नहीं होसकने का कटाक्ष नहीं करना चाहिये । जैसे कि संगीत
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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