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________________ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके स्वात्मगौरव आदि की वृद्धि होते हुये बिना ही प्रयत्न के दरिद्रता, पराधीनता, पद पद पर अपमान सहना, दुर्भिक्ष आदि की हानि होजाती है । यों पूर्वापर सूत्र वाक्यों की संगति कर लेनी चाहिये । ६२० पूर्वजन्मभाविस्वपरिणामविशेषविशुद्धितारतम्योपात्तशुभकर्म विशेषप्रकर्षतारतम्यात् स्थित्यादिभिराधिक्यं तावद्वैमानिकानां सूत्रितं सर्वथा बाधकविधुरत्व । त्तदन्यथानुपपत्त्या च तेषामुपर्युपरिभावस्य संगतिः । पूर्वजन्मभविस्वपरिणामविशेषविशुद्धितारतम्योपात्तशुभकर्मतारतम्यात् स्थित्यादिभिराधिक्यस्य दर्शनात्, क्षीणान्यथानुपपत्तिरिति चेन्न तदाधिक्यविशेषस्य तेषामुपर्युपरिभावेनान्यथानुपपत्तिसिद्धेः । पूर्व जन्म मे होनेवाले स्वकीय परिणाम विशेषों की विशुद्धि के तरतमभाव करके उपार्जित किये गये शुभ पुण्य कर्म विशेषों को प्रकर्षता के तारतम्य से स्थिति, प्रभाव, आदि कों करके वैमानिक देवों का अधिकपता तो सूत्रकार द्वारा पूर्व सूत्र में सूचित कर दिया गया ठीक है । क्योंकि बाधक प्रमाणों की सभी प्रकारों से विकलता होजाने के कारण उन स्थिति आदिकों करके अधिकपना वस्तुतः सिद्ध होजाता है । और उस स्थिति आदि के अधिकपन की अन्यथानुपपत्ति करके उन देवों के ऊपर ऊपर उपपाद लेने की निश्शंक संगति होजाती है । यहाँ कोई आक्षेप करता है कि पूर्व जन्म में हो चुके स्वकं य परिणामविशेषों की विशुद्धि के तारतम्य अनुसार उपार्जित किये गये शुभ पौद्गलिक कर्मों के उदय की तरतमता से स्थिति आदि करके अधिकपना देखा जाता है । अतः अन्यथानुपपत्ति क्षय को प्राप्त हो चुकी समझनी चाहिये अर्थात् स्थिति आदि के आधिक्य का शुभपरिणामों द्वारा उपात्त किये गये शुभकर्मों के तारतम्य के साथ अविनाभाव है। स्थिति आदि की अधिकता का देवों के ऊपर ऊपर जन्म होने के साथ अविनाभाव नहीं है। ऐसी अविनाभावविकलदशा में उस पूर्वसूत्रोक्त स्थिति आदि के आधिक्य से वैमानिक देवों का ऊपर ऊपर उपपाद सिद्ध नहीं हो सकता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि उन स्थिति आदिकों के अधिकपन स्वरूप विशेष की उन देवों के ऊपर ऊपर उपपाद होने के साथ अन्यथानुपपत्ति सिद्धि हो रही है । यहाँ भी निजपुण्य अनुसार कुलीनता, अधिक स्थिति, ऊंचा प्रभाव, विशिष्ट सुख, सुन्दर कान्ति, उत्तम लेश्या, वाले पुरुष उच्च स्थानों में जन्म लेते हैं । पुण्यशाली, धर्मात्मा श्रावक, या मुनियों में तो गति, शरीर परि ग्रह और अभिमान की हीनता भी देखी जाती है । अतः कारिका में कही गयी अन्यथानुपपत्ति निर्बल नहीं है । terry for frerry लेश्याविधानमुक्तं वैमानिक निकाये संप्रत्युच्यते । आदि की भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क इन तीन निकायों में लेश्या का विधान सूत्रकार करके "आदितस्त्रिषु पोतान्तलेश्याः, इस सूत्र द्वारा पहिले कहा जा चुका है। अब प्रकरण अनुसार चौथी वैमानिक निकाय में लेश्या का विधान सूत्रकार द्वारा इस समय कहा जाता है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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