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तस्वाचिन्तामणिः
है । तदनुसार सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में देवोंका शरीर सप्त अरनि प्रमाण है। 'प्रकोष्ठे विस्तृतकरे हस्तो मुष्टया तु वद्धया। स रत्निः स्यादरनिस्तु निष्कनिष्ठेन मुष्टिना' इस अमरकोष अनुसार कोनीसे लेकर पसारी हुई छोटी अंगुलीतक अरत्नि नामका नाप है । कपडे, भीत, आदिके नापमें बहुत स्थानोंपर इतने ही हाथका उपयोग प्रचलित है । सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में एक हाथ हीन यानी छह हाथ प्रमाण लम्बा शरीर है। उन माहेन्द्र देवोंसे भी ऊपर ब्रम्हलोक, ब्रह्मोत्तर, और कापिष्ठ पर्यन्त देवोंमें एक हाथ हीन यानी पांच हाथ परिमाण ऊंचा शरीर है । उनसे भी ऊपर सहस्रार पर्यन्त शुक्र, महागुक्र, शतार, सहस्रार इन चार स्वर्गोमें देवोंका एक अरत्नि हीन यानी चार हाथ ऊंचा शरीर है। उससे भी ऊपर आनत प्राणत, स्वर्गोमें आधा अरत्नि हीन अर्थात्-साढे तीन हाथका शरीर है । उससे भी ऊपर आरण अच्युत स्वर्गों में आधा अरनि हीन यानी तीन हाथका शरीर है । उस अच्युतसे भी ऊपर तीन अधो ग्रैवे. यकोंमें आधा अरनि कम यानी ढाई हाथ लम्बा शरीर है । उससे भी ऊपर तीन मध्य ग्रैवेयकोंमें आधा हाथ कम अर्थात्-दो हाथ ऊंचा शरीर है। उन मध्यप्रैवेयकोंसे भी ऊपर ऊपरले तीन उपरिम अवेयकोंमें और तदुपरि नौ अन दिश विमानोमें यों बारह स्थानोंपर देवोंका डेढ हाथ प्रमाण ऊंचा शरीर है। उन अनुदिशोंसे ऊपरले वहां अनुत्तर विमानों में देवोंका शरीर केवल एक अरनि (हाथ) प्रमाण ऊंचा है । यों आप्तोक्त सिद्धांत शास्त्रों द्वारा सुना जा रहा है।
परिग्रहेणापि विमानपरिवारादिलक्षणेन हीनाः तत्कारणस्य प्रकृष्टस्याभावात् । सौधमादिषु हि देवानामुपयुपरि नामकर्मविशेषोल्पाल्पतराल्पतमविमानपरिवारहेतुरंतरंगो बहिरंगस्तु क्षेत्रविशेषादिरिति कारणापकर्षतारतम्यात् कार्यापकर्षतारतम्यसिद्धिः ।
___ विमान संख्या, सामानिक आदि परिवार, सेना, भूषण, वाहन आदि स्वरूप परिग्रह करके भी वैमानिक देव ऊपर ऊपर हीन हो रहे हैं। क्योंकि उस परिग्रहके कारणभूत होरहे मध्यमजातीय पुण्यके प्रकर्षका अभाव है । अर्थात्-दरिद्र पुरुषोंके तीव्र पापका उदय होनेसे सुखोपयोगी परिग्रह नहीं मिल पाता है। परिस्थितिवश अल्पसंतोषी पुरुषोंके या जघन्य भोगभूमियोंके जघन्यपुण्यका उदय होनेसे सुखोत्पादक थोडा परिग्रह एकत्रित हो जाता है। मध्यम जातिके पुण्य अनुसार राजा, महाराजाओं, भवनत्रिक देव, सौधर्म स्वर्गी आदिके अत्यधिक परिग्रह जुड़ रहा है। किंतु उत्तम जातीय पुण्यका उदय होनेसे ऊपरले देव या अहमिंद्र अथवा उत्तम भोगभूमि के जीवों के अत्यल्प परिग्रह है। कारण कि सौधर्म आदि मे देवोंके ऊपर ऊपर
विमान परिबार आदि का हेतु हो रहे और अल्पतर विमान परिवार आदि का हेतु हो रहे तथा उससे भी थोडे अल्पतभ विमान परिवार आदि परिग्रह के हेतु हो रहे विशेष नामकर्म का उदय यह अन्तरंग कारण विद्यमान है और सौधर्म स्वर्ग, आनत, प्राणत, गैवेयक, अनुत्तर ये क्षेत्र विशेष ऊपर ऊपर अल्पकषाय, लौकिकभावोंकी त्रुटि आदिक तो परिग्रह की हीनता में बहिरंग कारण हैं । इस प्रकार अन्तरंग कारण और बहिरंग कारणों के अपकर्षका ऊपर ऊपर तरतम भाव होने से परिग्रह जुड जाना स्वरूप कार्य के तरतम द्वारा होरहे अपकर्ष को सिद्धी 78