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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
होजाती है अर्थात् आर कार देवों के लोभ कषाय का मन्द, मन्दतर मन्दतम, उदय है तथा अल्प अल्पतर, अल्पतम परिच्छदों के कारण उन उन स्तोक, स्तोकतर, स्तोकतम, विशिष्ट पुण्य प्रकृतियों के उदय अनुसार वैसे वैसे कार्य होजाते हैं।
___ कुतोभिमानेन हीनास्ते ? तत्कारणप्रकर्षस्याभावादेव । किं पुनरभिमानकारणं? शरीरिणामप्रतनुकषायत्वं मनसः संक्लेशोवधिशुद्धिविरहादतत्वावलोकनमसंवेगपरिणामश्च तस्य हानितारतम्यादुपर्युपरि देवानामभिमानहानितारतम्यं तत्पुनरभिमानकारणस्य हानितारतम्यं तत्प्रतिपक्ष भूतानां प्रतनुकषायत्वाल्पसंक्लेशावधिविशुद्धितत्वावलोकनसंवेगपरिणामाधिक्यानां तारतम्यादुपपद्यते पूर्वजन्मोपात्तविशुद्धाध्यवसायप्रकर्षतारतम्यादुपर्युपरि तेषामुपपादस्य घटनाच ।
घे वैमानिक देव अभिमान से हीन होरहे भला किस कारण से हैं ? इस प्रश्नपर ग्रन्थकार उत्तर देते हैं कि उस अभिमान के कारणभूत कषायों के प्रकर्ष का अभाव हो जाने से ही वे अभिमानहीन हैं। फिर कोई पछता है कि अभिमानका कारण क्या है ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि शरीरधारी जीवों का अत्यल्प कषायों से रहितपना मन का संक्लेश, अवधिज्ञान की विशुद्धि की विकलता होजाने से तात्त्विकदष्टि द्वारा यथार्थतत्त्वों का अवलोकन नहीं होना. स्वकीय परिणामों में संवेग या वैराग्य भाव नहीं जगना, ये सब अभिमान के कारण हैं। गर्व के उन कारणों की हानिका तरतम भाव होने से ऊपर ऊपर देवों के अभिमान की न्यूनता का तरतम भाव सध जाता है। वह अभिमान के कारणों की हानिका तरतमभाव तो फिर उसके प्रतिपक्षभूत होरहे विशेष सूक्ष्मकषाय यानी मन्दकषाय परिणाम, अल्प संक्लेश, अवधि ज्ञान की विशुद्धि, वास्तविक जीव आदि तत्त्वों का अवलोकन, गर्व, क्रोध, आदि विभाव परिणामों के औपाधिकपने पर पहुंचकर ज्ञप्ति कर लेना, संसारभीरुता या लौकिक कार्यों में निरुत्साह, अरुचिरूप परिणाम इनकी अधिकता के तारतम्य से बन जाता है। क्योंकि पूर्व जन्मों में पुरुषार्थं द्वारा गृहीत हुये विशुद्ध अध्यवसायों की प्रकर्षता के तारतम्य से आर ऊपर स्थानों में उन देवों का उत्पाद घटित होरहा है। भावार्थ-सौधर्म से ऊपर ग्रैवेयकतक भले ही वे देव सम्य ग्दृष्टि होय चाहे मिथ्यादृष्टि होय, उनके कषायों की मन्दता या अल्प संक्लेश आदि हेतु पाये जा सकते हैं। वर्तमान में भी अनेक अजैन विचारे कतिपय जैनों की अपेक्षा मन्दकषाय देखे जाते हैं। प्रधानाध्यापकपन, सेठियापन, जमीदारी, राज्याधिकार, राजपदवियाँ, चौधरायत, पंचपना, सुन्दरता, जातिगर्व, ज्ञानमद, तपस्या आदि का गर्व जब कि दूसरे दूसरे मनुष्यों में अत्यल्प पाया जाता है किन्तु स्वयं को धर्मात्मापनका गर्व कररहे किसी किसी व्यक्ति में उन पदों का अभिमान चकाचक भर रहा है । अल्प संक्लेश भी मिथ्यादृष्टियों के पाया जाता है । समीवीन अध. धिज्ञान द्वारा जैसे विशुद्धि होती है विभंग द्वारा भी विलक्षण जाति की विशुद्धि होना सम्भव है अनेक अजैन साधुओं में कुश्रुतज्ञान द्वारा होरही विशुद्धि इसका दृष्टान्त है । इसी प्रकार तत्वावलोकन भी समझलिया जाय। ग्यारह अंग नौ पूर्वपाठी मिथ्यादष्टि के ज्ञानसे एक अक्षरको भी शुद्ध नहीं बोलने समझनेवाले सम्यग्दृष्टि के तत्वावलोकन को ज्ञानदृष्टया हीन कहने में लज्जा