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________________ तत्त्वार्थश्लोकवाप्तिके उपर्युपरि ते हीना गत्यादिभिरसंभवात् । तत्कारणप्रकर्षस्य परिणामविशेषतः ॥१॥ गति, शरीर, आदिकों करके वे देव फार फार हीन हो रहे हैं ( प्रतिज्ञा ) । क्योंकि ऊपर ऊपर तिस जातिके परिणाम विशेष होते रहनेसे उन गति आदिकोंके कारणोंकी प्रकर्षताका असम्भव है (हेतु) । अर्थात्-पूर्वजन्ममें उपात्त शुभ कर्मों के अनुसार विशुद्धिका अध्यवसाय बढता बढता रहनेसे और अत्यला संक्लेशभाव होनेसे वैमानिक देव सामर्थ्य, सुख, सन्तोष, आदिके अधिक होनेपर भी गति आदि करके हीन हैं। गत्या तावदुपर्युपरि होना देवास्तत्कारणस्य विषयाभिष्यंगोद्रेकस्य हीनत्वात् तथा परिणामैनोत्पत्तः। शरीरेणापि हीनास्तत्कारणस्य प्रवृद्धशरीरनामकर्मोदयस्य हीनत्वात् । सौधर्मेशानयोर्देवानां शरीरं सप्तार लप्रमाणं, सानत्कुगरमाहेंद्रयोरगति हीनं कापिष्टांतेषु, ततापि सहस्रारांतेष्वरनिहींनं, तोप्यानतप्राणतयोरधारनिहीनं, तप्यारणाच्युतयाः, ताप्योङ्गवेयकंषु, ततो मध्यौवयकेषु, ततोप्युपरिमग्रंयकेष्वनुदिशविमानेषु च, ततोनुत्तरंषु तत्रालि मात्रलाईवशरीरस्पति हि श्रुतिः। सबसे प्रथम कही गयी गति करके तो ऊपर ऊपरके देव हीन हो रहे हैं। क्योंकि उस गतिके कारणभूत हो रही विषयोंमें तीव्र आसक्तिकी अधिकता ( चाव ) के हीन हीन होनेसे तिस प्रकार अल्प गति परिणाम करके वैमानिकोंकी देव पर्याय उपजती रहती है। अर्थात्क्रीडा, ममनविनोद (शैल सपाटा) करने के लिये सौधर्म, ऐशान, स्वर्गके देव जितना यहां वहां असंख्याते द्वीप समुद्रोमें बार बार गमन करते हैं, उतना ऊपर ऊपरके देव यहां वहां नही घुमते फिरते हैं । विनोदकी बात दूर है । धार्मिक क्रियाओंके लिये भी ऊपर ऊपरके देव अत्यल्प आते जाते हैं । वैमानिक अहमिन्द्र देव तो नन्दीश्वर पर्व पूजा, सुमेरु चैत्यालय पूजन, जिन जन्म महोत्सव आदिमें भी वहां नहीं आते जाते हैं । गतिके समान ही शरीर करके भी वैमानिक देव ऊपर ऊपर हीन हैं। क्योंकि उस लम्बे, चौडे, मोटे, शरीरके कारणभूत शरीर नामक नामकर्मको उत्तरोत्तर प्रकृति हो रही प्रवृद्ध शरोर' संज्ञक नामकर्मके उदयकी हीनता है । अर्थात्-- महामत्स्य, हाथी, छठवें सातवें नरकके नारकी, भोगभूमियां, नन्दीश्वर द्वीपकी वाबडियोंके कमल, बारह योजनका शंख, स्वयंप्रभपर्वतके बाह्य भागमें पाये जा रहे उत्कृष्ट अवगाहनाके त्रस जीव, इन स्थूल अवगाहनावाले जीवोंके देहविपाकी शरीर प्रकृतिकी विशेष भेद हो रहीं प्रवृद्धशरीर नामक प्रकृतिका उदय विद्यमान है । किन्तु वैमानिक देवोंक प्रवृद्ध शरीर नाम कर्मका उदय नहीं है, किन्तु ' क्षुल्लक शरीर' संज्ञक नाम कर्म का उदय है । शरीर प्रकृतिके अवगाहनाओं के भेद अनुकूल असंख्याते भेद हैं। वैमानिकोंमें उत्तरोत्तर छोटे छोटे हो रहे शरीरोंके अन्तरंग कारण वैसी वैसी स्तोक शरीर प्रकृतिका उदय पाया जा रहा
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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