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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६१५ उभयनिमित्तवशादेशांतरमानिनिमित्तः कायपरिस्पंदो गतिः, शरीरमिह वैक्रियिकमुक्त लक्षणं ग्राह्य, लोभकषायोदयान्मूर्छा परिग्रहो वक्ष्यमाणः, मानकषायोदयात् प्रतियोगेष्वप्रणतिपरिणामाभिमानः । गतिशरीरपरिग्रहाभिमानैतिशरीरपरिग्रहाभिमानतः उपर्युपारे वैमानिकाः प्रतिकल्पं प्रतिप्रस्तारं च हीनाः प्रत्यंतव्याः। ___ अन्तरंग और बहिरंग दोनों निमित्त कारणोंके वशसे एक देशसे अन्य देशोंकी प्राप्तिका निमित्त हो रही शरीरके परिस्पन्दरूप क्रियाको गति कहते हैं। कार्योंके उपादान तथा अन्तरंग, बहिरंग, प्रेरक, उदासीन, निमित्त ये कारण जब जुड़ जाते हैं, तब कार्यको उत्पत्ति हो जाती हैं । आकाशमें गति होनेके उपादान और बहिरंग अन्तरंग निमित्त कारण नहीं हैं। सिद्धक्षेत्रमें विराज रहे सिद्ध परमेष्ठियोंमें गतिका बहिरंग कारण गति नाम कर्मका उदय नहीं है। छातीमें वेग या अश्ववार इन प्रेरक कारणों के नहीं मि नेपर घोडा गमन नहीं करता है। उदासीन कारण समान मानी गयी कोलके नहीं होनेसे चाक शीघ्र भ्रमण नहीं कर पाता है । अतः शरीरधारी देवोंकी गतिमें उपादान कारण जीव और शरीर तथा निमित्त कारणोंमें प्रेरक निमित्त छातीके वेग, मनका उत्साह, गति कर्मका उदय ये अन्तरंग हैं। वाहन, विमान, पांव, भूमि आकाश, भ्रमणेच्छा, प्रभुको आज्ञाका पालन, ये बहिरंग हैं । धर्मद्रव्य, आकाश, उदासीन कारण हैं । यों अन्तरंग, बहिरंग, कारणोंसे देवोंकी गति पर्याय बनती है। यहां देवोंके प्रकरणमें वैक्रियिक शरीर ग्रहण करना चाहिये, जिसका कि लक्षण हम द्वितीयाध्यायमें कर चुके हैं । लोभ कषायके उदयसे संकल्प, विकल्प, स्वरूप मूर्छा होकर विषयोंमें आसक्ति हो जाना परिग्रह है । यह मूर्छा स्वरूप परिग्रह स्वयं सूत्रकार द्वारा आगे सातवें अध्यायके ' मूर्छा परिग्रहः ' सूत्रमें परिभाषित कर दिया जावेगा। चारित्र मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृति मान कषायके उदयसे प्रतिस्पर्धा रखने वालों या साथवाले प्रतियोगी मनुष्योंमें प्रणाम नहीं करना, नहीं दबना, स्वरूप परिणाम अभिमान है । उक्त चार पदोंका द्वन्द्व समासकर पुनः तृतीय विभक्तिके गति शरीर परिग्रहाभिमानों करके इस अर्थमें तसि प्रत्यय कर " गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतः" यह पद बना लेना चाहिये । प्रत्येक कल्प और प्रत्येक प्रस्तारमें ऊपर ऊपर वैमानिक देव इन गति, शरीर, परिग्रह, और अभिमान करके हीन हो रहे समझ लेने चाहिये । यह सूत्रका मूल अर्थ है। कुतस्ते तधत्याह । ____वे वैमानिक देव भला किस कारणसे ऊपर कार तिस प्रकार गति आदिक करके हीन हो रहे हैं ? बताओ, इस प्रकार आकांक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वात्तिक द्वारा समाधान वचनको कहते हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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