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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
उदात्त गम्भीर, महामना, समझा जायगा। हां, साधु अनुग्रह और दुर्जन दण्ड करनेवाले राजवर्ग के प्रभुओं (अफसरों) की बात निराली है । देवों में ऊपर ऊपर ऐसी निग्रह करानेवाली प्रभुताके उपयोगकी सामग्रीकी भरमार नहीं है ।
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एवमिह सुखस्य तारतम्यदर्शनात्तेषां सुखेनाधिक्यं । द्युत्या तारतम्यदर्शनादिति द्युत्याधिक्यं । लेश्याविशुद्धेस्तारतम्यदर्शनात्तयाधिक्यं समानलश्यानामपि कर्मविशुध्यधिकत्वसिद्धेः । इंद्रिय विषयस्य तारतम्यदर्शनादिद्रियविषयंणाधिक्यं । तद्वदवधिविषयेण तथा संभावनायां बाधकाभावात् ।
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इसी प्रकार यहां मनुष्यों में सुखके तारतम्यका दर्शन होनेसे उन कल्प और कल्पातीत देवोंके भी लौकिक सुखों करके अधिकपना सिद्ध कर दिया जाता है । द्युति यानी दीप्ति करके भी यह तारतम्य देखा जाता है । इस कारण आगमगम्य, परोक्ष, देवों में इस दृष्टान्तकी सामर्थ्य अनुसार द्युति करके अधिकपना साध दिया जाता है। लेश्याओं की विशुद्धिका तारतम्य यहां मनुष्य या तिचों में देखा जाता है । इस कारण उस लेश्याविशुद्धि करके अधिकपना देवों में सम्भावने योग्य है | " पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु " इस सूत्र द्वारा वैमानिक देवों में लेश्याविधि कह दी जायगी, किन्तु जिन देवोंकी लेश्या समान है, उनके भी उत्तरोत्तर प्रस्तारोमे कर्मोकी विशुद्धिका अधिकपना सिद्ध है । जैसे कि सौचम में पीत लेश्या हैं, सानत्कुमार स्वर्ग में भी पोत लेश्या है । तथा आरण, अच्युत, ग्रैवेयक, अनुदिश, अनुत्तर विमानवासी देवों में सबके एकसी शुल्क लेश्या है । फिर भी कर्मो के मन्द मन्दतंर, मन्दतम, उदय अनुसार लेश्याकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ रही है । योंही यहां मनुष्य तियंचों में छह इन्द्रियोंके विषयका तरतम भाव देखा जाता है | अतः देवोंमे भी इन्द्रियोंके विषय करके अधिकपना अनुमित हो जाता है। उन्हीं के समान देशावधिके अधिक अधिक हो रहे विषय करके तिस प्रकार उत्तरोत्तर अधिक हो रहे देशावधिके विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकी सम्भावना करनेमें बाधक प्रमाणों का अभाव है । ' असंभवद्वाधकत्वाद्वस्तुसिद्धिः ' ।
गत्यादिभिरधिकत्वप्रसंगे तन्निवृत्त्यर्थमाह ।
कोई प्रतिवादी कटाक्ष करता है कि जिस प्रकार स्थिति, प्रभाव, आदि करके ऊपर ऊपर अधिकपना है, उसी प्रकार वैम निक देवों में गति, शरीर, आदि करके भी अधिकपनका प्रसंग प्राप्त हो जायगा ? ऐसी दशा में उस अनिष्ट प्रसंगकी निवृत्तिके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥
गति, शरीर, अवगाहना, परिग्रह और अभिमानसे वे वैमानिक देव उत्तरोत्तर प्रस्तारों में हीन हीन होकर विराज रहे हैं।