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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ६१३ मनुष्यादौ स्थितस्तावतारतम्यस्य दर्शना देवानामुपरि स्थित्याधिक्यं दृष्टं संभाव्यते । येपामपि समाना स्थितिः तेषामपि गुणाधिकत्वसिद्धेः । प्रभावस्य च तारतम्यदर्शनं तेन धिकं । यः प्रभावः सौधर्मकल्पे निग्रहानुग्रहपराभियोगादिषु तदनंतगुणत्वादुपर्युपरि देवानां छे.बलं मंदाभिमानतयाल्पसंक्लशतया च न प्रवर्तनं । मनुष्य, तियंच, आदि में सबसे पहिली स्थिति के तरतम भावका दीखना होनेसे देवोंके ऊपर ऊपर स्थिति करके अधिकपना देखा जा चुका सम्भावित हो रहा है । सर्वज्ञ देव या दिव्यज्ञानी आचार्य, जिन अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष कर लेते हैं, उनमें से कतिपय पदार्थोंकी वादी, प्रतिवादी पुरुष युक्तियों द्वारा सम्भावना कर लेते हैं । उनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिको आगे कह देंगे । हां, जिन देवोंकी स्थिति समान भी है, उनके भी अन्य गुणों करके अधिपना सिद्ध हो रहा है। जैसे कि सौधर्म, ऐशान, स्वर्गो में कुछ अधिक दो सागर उत्कृष्ट आयु है । सनत्कुमार, माहेन्द्र, की भी इतनी ही जघन्य आयु है । एक समय अधिक कोई अधिक नहीं समझी जाती है । विजय, वैजयंत, जयंत, की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर और सर्वार्थसिद्धिकी तेतीस सागर बराबर है एवं इन्द्रकी आयु के समान ही सामानिक देवोंकी भी आयु है । फिर भी इनमें गुणोंकी अपेक्षा अधिकता है । दश सागर उत्कृष्ट आयुवाले ब्रम्होत्तर स्वर्गवासी देवोंकी अपेक्षा आठ सागर प्रमाण आयुष्यधारी लौकान्तिक देव गुणोंसे अधिक है - 1 जैसे कि निर्धन मुर्ख या रोगीके साठ वर्षतक जीवनकी अपेक्षा नीरोग विद्वान्का पचास वर्षतक जीवन सुचारु ( बेहतर ) है । दस दिनके काल कोठरी निवास नामक दण्ड से दो माहका कारावास कहीं अच्छा है । फांसी की अपेक्षा जन्म पर्यन्त द्वीपान्तवास ( कालापानी) दण्ड हलका है । तथा प्रभावका भी तरतम रूपसे दीखना होनेसे देवों में उस प्रभाव करके ऊपर ऊपर अधिकपना सम्भावित हो रहा है । सौधर्म कल्प में देवोंका जो निग्रह करना, अनुग्रह करना, दूसरों को लताडना, आश्रितोंपर अपराध नियत कर देना, आज्ञा चलाना आदि नियोगों में प्रभाव है । ऊपर ऊपर उससे अनंत गुणा होनेसे देवोंका प्रभाव अधिक हो रहा है । केवल अभिमान या अन्य कषायोंकी मन्दता होनेसे और अल्प संक्लेशवान् होनेसे ऊपर ऊपरके देव विचारे आश्रितदेवों पर निग्रह, अनुग्रह, आदि नियोग चलानेमें प्रवृत्ति नहीं करते हैं । जैसे कोई प्रधानाध्यापक अग्नी सज्जनता, मन्द कषाय, औपाधिक क्षणिक पदवियोंमें अनादर आदि कारणोंसे अपने आश्रित अध्यापक, छात्र मंडल या कर्मचारियोंपर स्वकीय पूर्ण प्रभाव नहीं डालता है । भले ही छोटी पदवीवाला प्रबंधक (सुप्रिन्टेन्डेन्ट) छात्रोंपर भारी प्रभाव गांठ लेवें । बात यह है कि गम्भीर प्राणी अपने पूरे प्रभावका व्यय नहीं करते हैं । जो अपने प्रभावोंका अधिकता या अनुचित रूप से उपयोग करते हैं, वे गम्भीर जीवोंमें निंदाके पात्र होकर छोटे समझे जाते हैं । दूसरों के उपकार करने में अपने प्रभावका भले ही उपयोग किया जाय, किन्तु दूसरोंके निग्रह, अभियोग संचालनमें जो पुरुष जितना भी अपने प्रभावका अल्प व्यय करेगा वह पुरुष उतना ही
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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