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तत्वार्थचिन्तामणिः
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मनुष्यादौ स्थितस्तावतारतम्यस्य दर्शना देवानामुपरि स्थित्याधिक्यं दृष्टं संभाव्यते । येपामपि समाना स्थितिः तेषामपि गुणाधिकत्वसिद्धेः । प्रभावस्य च तारतम्यदर्शनं तेन धिकं । यः प्रभावः सौधर्मकल्पे निग्रहानुग्रहपराभियोगादिषु तदनंतगुणत्वादुपर्युपरि देवानां छे.बलं मंदाभिमानतयाल्पसंक्लशतया च न प्रवर्तनं ।
मनुष्य, तियंच, आदि में सबसे पहिली स्थिति के तरतम भावका दीखना होनेसे देवोंके ऊपर ऊपर स्थिति करके अधिकपना देखा जा चुका सम्भावित हो रहा है । सर्वज्ञ देव या दिव्यज्ञानी आचार्य, जिन अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष कर लेते हैं, उनमें से कतिपय पदार्थोंकी वादी, प्रतिवादी पुरुष युक्तियों द्वारा सम्भावना कर लेते हैं । उनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिको आगे कह देंगे । हां, जिन देवोंकी स्थिति समान भी है, उनके भी अन्य गुणों करके अधिपना सिद्ध हो रहा है। जैसे कि सौधर्म, ऐशान, स्वर्गो में कुछ अधिक दो सागर उत्कृष्ट आयु है । सनत्कुमार, माहेन्द्र, की भी इतनी ही जघन्य आयु है । एक समय अधिक कोई अधिक नहीं समझी जाती है । विजय, वैजयंत, जयंत, की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर और सर्वार्थसिद्धिकी तेतीस सागर बराबर है एवं इन्द्रकी आयु के समान ही सामानिक देवोंकी भी आयु है । फिर भी इनमें गुणोंकी अपेक्षा अधिकता है । दश सागर उत्कृष्ट आयुवाले ब्रम्होत्तर स्वर्गवासी देवोंकी अपेक्षा आठ सागर प्रमाण आयुष्यधारी लौकान्तिक देव गुणोंसे अधिक है - 1 जैसे कि निर्धन मुर्ख या रोगीके साठ वर्षतक जीवनकी अपेक्षा नीरोग विद्वान्का पचास वर्षतक जीवन सुचारु ( बेहतर ) है । दस दिनके काल कोठरी निवास नामक दण्ड से दो माहका कारावास कहीं अच्छा है । फांसी की अपेक्षा जन्म पर्यन्त द्वीपान्तवास ( कालापानी) दण्ड हलका है । तथा प्रभावका भी तरतम रूपसे दीखना होनेसे देवों में उस प्रभाव करके ऊपर ऊपर अधिकपना सम्भावित हो रहा है । सौधर्म कल्प में देवोंका जो निग्रह करना, अनुग्रह करना, दूसरों को लताडना, आश्रितोंपर अपराध नियत कर देना, आज्ञा चलाना आदि नियोगों में प्रभाव है । ऊपर ऊपर उससे अनंत गुणा होनेसे देवोंका प्रभाव अधिक हो रहा है । केवल अभिमान या अन्य कषायोंकी मन्दता होनेसे और अल्प संक्लेशवान् होनेसे ऊपर ऊपरके देव विचारे आश्रितदेवों पर निग्रह, अनुग्रह, आदि नियोग चलानेमें प्रवृत्ति नहीं करते हैं । जैसे कोई प्रधानाध्यापक अग्नी सज्जनता, मन्द कषाय, औपाधिक क्षणिक पदवियोंमें अनादर आदि कारणोंसे अपने आश्रित अध्यापक, छात्र मंडल या कर्मचारियोंपर स्वकीय पूर्ण प्रभाव नहीं डालता है । भले ही छोटी पदवीवाला प्रबंधक (सुप्रिन्टेन्डेन्ट) छात्रोंपर भारी प्रभाव गांठ लेवें । बात यह है कि गम्भीर प्राणी अपने पूरे प्रभावका व्यय नहीं करते हैं । जो अपने प्रभावोंका अधिकता या अनुचित रूप से उपयोग करते हैं, वे गम्भीर जीवोंमें निंदाके पात्र होकर छोटे समझे जाते हैं । दूसरों के उपकार करने में अपने प्रभावका भले ही उपयोग किया जाय, किन्तु दूसरोंके निग्रह, अभियोग संचालनमें जो पुरुष जितना भी अपने प्रभावका अल्प व्यय करेगा वह पुरुष उतना ही