________________
तत्त्वार्थश्लोकवातिके
उक्त सूत्रमें कहे जा चुके सौधर्म आदि कल्पों में और ग्रैवेयक आदि कल्पातीतों में निवास कर रहें वे देव परस्परमे किन किन विशेषताओंको धारते हैं ? इसकी प्रतिपत्ति करा - नेके लिये सूत्रकार अगले सूत्रको कहते हैं ।
६१०
स्थितिप्रभवासुखद्युतिलेश्याविशुद्धींद्रियावधिविषयतोधिकाः ॥ २० ॥
आयुष्य प्रमाण स्थिति, निग्रहानुग्रह करना स्वरूप प्रभाव, इन्द्रियजन्य लौकिक सुख, स्वरूप द्युति, लेश्या, इन्द्रियों का विषय, अवधिज्ञानका विषय इन करके ऊपर ऊपर के वैमानिकदेव अधिक हो रहे हैं। यानी त्रेसठ प्रस्तारोंमें ऊपर ऊपर स्थिति आदिक बढ रहे पाये जाते हैं ।
"
स्त्रीपात्तायुष उदयात्तस्मिन् भवे तेन शरीरेणावस्थानं स्थिति, शापानुग्रहलक्षणः प्रभावः, संद्वद्योदये सतीष्टविषयानुभवनं सुखं शरीरवसनाभरणादिदीप्तियुतिः कषायानुरंजिता योगवृत्तिशक्ता तस्या विशुद्धविशुद्धिः, इन्द्रियस्यावश्व विषयां गोचरः प्रत्येयः, विषयशब्दस्येंद्रियाःविभ्यां प्रत्येकमा संघात् अन्यथीपर्युपरि देवानानिद्रियाभिवृद्धिप्रसंगात् सिद्धांतविरोधापत्तेः ।
अपने करके पूर्व जन्म में उपार्जित किये गये आयुष्य कर्मका उदय हो रहे उस भवमें उस गृहीत शरीर के साथ अवस्थान बना रहना स्थिति है। क्रुद्ध होकर अपने अधिकृत प्राणियों में से किसीको अनिष्ट प्राप्त कर देना शाप स्वरूप प्रभाव है । और किसीके ऊार प्रसन्न होते हुये इष्ट प्राप्त करा देना स्वरूप अनुग्रह नामक प्रभाव है । अन्तरंग में साता वेदनीय कर्मका उदय हो सन्ते इष्ट विषयों का अनुभव करना सुख है। शरीर, वस्त्र, अलंकार, गंध, द्रव्य, मुकुट आदिकी दीप्तिको द्युति कहते हैं । कषायोंसे अनुरंजित हो रही योगोंकी प्रवृत्ति लेश्या है । जो कि " गतिकषायलिंग मिथ्यादर्शना, इत्यादि सूत्रकी ग्यारहवीं वात्तिक में कही जा चुकी है। उस
int विशुद्धि हो जाना लेश्या विशुद्धि है । इन्द्रियोंका और अवधि ज्ञानका विषय यानी ज्ञातव्य प्रमेय इन्द्रिय विषय और अवधि विषय समझ लेना चाहिये । विषय शद्वका इन्द्रिय और अवधि इन प्रत्येक के साथ पीछे संबंध कर दिया जाता | अन्यथा यानी इन्द्रियों के साथ विषaar यदि संबंध नहीं किया जायगा तो ऊपर ऊपर देवोंके इन्द्रियोंकी अभिवृद्धिका प्रसंग हो जानेसे सिद्धांतसे विरुद्ध कथनको आपत्ति हो जायगी अर्थात् सभी देवोंके छह, सात, पच्चीस, पचास आदि इन्द्रियां नहीं हैं । अवधिज्ञान भी देशावधिके मध्य भेद वहां पाये जाते हैं। देशावधिके अतिरिक्त कोई परमावध, सर्वावधि, या अन्य भेद बहां नहीं है ।
इन्द्रियां पांच ही हैं ।