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________________ ६०८ तत्वार्थ लोक वार्तिके एकरूपसे है । अर्थात् — नवत्रैत्रेयक अकेले अकेले होकर ऊपर ऊपर नौ पटलोंमें वर्त रहे हैं । अनुदिशोंका एक पटल उपरिम नौमे मैत्रेयके ऊपर है । उसके ऊपर पांचों अनुत्तरों का एक ही समतुलात्राला पटल है। सूत्रोक्त शब्दों की शक्तिसे और अर्थसम्बन्धी न्याय से भी वह सौधर्म आदि कल्पोंकी या कल्पातीतों की युगल रूपसे या एक एक रूपसे इस प्रकार वृत्ति होना अभीष्ट होरहा है । सहस्रारतक दो दो कल्पों का पहिले इतरेतर द्वन्द्व समास कर पश्चात् छह युग्मों का द्वन्द्व कर लेना । आगे स्पष्ट ही है । सौधर्मेत्यादि निर्दिष्टानां सौधर्मेशानदीनां श्रेणींद्रकप्रकीर्णात्मकपटल भावापन्नानां विमानानामुपर्युपरि द्वंद्वर्तनं विभाव्यते आनतप्राणतद्वंद्वमनन्तर मारणाच्युतयोरिति सूचनादन्यथा वृत्त्यकरणे प्रयोजनाभावात् । तच्च द्वंद्रवर्तनं कल्पेष्वेव विभाव्यते । तदंते वृत्त्यकरणात् प्रागेव सौधर्मेशानयोः सानत्कुमारमाहेन्द्रयोरित्यनृत्यकरणात् । सौधर्मैशान इत्यादि सूत्र कथन किये गये चारों दिशाओं में पंक्तिबद्ध फैले हुये श्रेणीबद्ध विमान और श्रेणीबद्धों के ठीक बीचमें ठहर रहा इन्द्रक विमान एवं दो दो श्रेणीयों के बीच बीचके चार तिकोने बिखेरे हुये पुष्पों के समान फैल रहे पुष्पप्रकीर्णक विमान यो श्रेणीजातीय, इन्द्रक और प्रकीर्णक जातीय, विमानों स्वरूप पटलभाव को प्राप्त होरहे सौधर्म, ऐशान, आदि विमानों का ऊपर ऊपर युग्म रूपसे वर्तना निर्णीत कर लिया जाता है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि आनतप्राणतके द्वन्द्व पश्चात् आरण अच्युतों का पृथक रूप से सूत्रमें कथन किया है । सूत्रकारने अन्तिम चारों स्वर्गीकी समासवृत्ति जो नहीं की है, उसका यही प्रयोजन है कि सोलह स्वर्ग दो दो होकर यमल रूपसे ऊपर ऊपर आठ द्वय वर्त रहे हैं । सूत्रकारका समासवृत्ति नहीं करनेमें अन्य प्रकारका कोई प्रयोजन नहीं है । और वह द्वन्द्व रूपसे दो दोका बराबर होकर वर्तना कल्पों में ही विचारा जाता है । क्योंकि उन कल्पोंमें ही अन्तके चार कल्पोंमें इन्द्व समासवृत्ति नहीं की गई है। उनके पहिले ही सौधर्म आदिक बारह कल्पोंमें वृत्ति यों की गई है कि सौधर्मश्व ऐशानश्च सौधर्मैशामों और सानत्कुमारश्च माहेन्द्रश्च सानत्कुमारमाहेन्द्रौ तथा ब्रह्मा च ब्रह्मोत्तरश्च ब्रह्मब्रह्मोत्तरौ इत्यादिरूपले छह युगलोंके छह द्वन्द्व समास किये गये हैं । पुनः सौधर्भैशान पदकी और सानत्कुमार माहेन्द्र आदि पांच युग्म पदोंकी अवृत्ति नहीं की गई है । यानी आठ कल्प या बारह स्वर्गौका द्वन्दू समास कर दिया गया है । इसीसे कल्पों में 1 युगलवृत्तिका सिद्धान्त निर्णीत होजाता है । तत एव नवसु ग्रैवेयशो वर्तनं विभाव्यते । नमस्वनुदिशेषु च तत्र दिग्विदिग्नयैक्रैकविमानमध्यगस्येंद्रकविमानस्यैकत्वात् । तत एवानुत्तरसंज्ञानां पंचानामेकशो वर्तनं विभाव्यते दिग्वर्त्यैकैकविमानमध्यगस्येंद्रकस्य सर्वार्थसिद्धस्यैकत्वात् । अर्थतश्चैवं विभाव्यते अन्यथोक्तनिर्देशक्रमस्य प्रयोजनानुपपत्तेः ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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