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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कुतः पुनर्द्वयोरुपर्युपरिभाषः प्राग्नैवेयकेभ्य एवेत्याह ।
किसी प्रतिवादीका कटाक्ष है कि उक्त व्याख्यान करनेसे प्रतीत हुआ है कि सौधर्म आदि कल्पोंमें दो दो स्वर्ग बराबर ठहरते हुये ऊपर ऊपर सौलह स्वर्ग वर्त रहे हैं। किन्तु सूत्र द्वारा यह अर्थ नहीं निकलता है। अवेयकोंसे पहिले ही यह व्यवस्था होय । पुनः अवेयकों, अनुदिशों, या विजयादिकोंमें दो दो का युगल ऊपर ऊपर नहीं व्यापे यह भी मूलसूत्रसे ध्वनित नहीं होता है। अतः बताओ कि प्रैवेयकोंसे ही पहिले दो दो स्वर्गीका ऊपर ऊपर वर्तना है, यह कैसे निर्णीत किया जा सकता है ? टीकाकारोंको मूलसूत्र के अनुसार ही चलना चाहिये । सिद्धान्तको न्यून अधिक कथन करनेसे तत्त्वोंका कूपपतन या आकाशमें फेंक दिया जाना अवश्यम्भावी है। इस प्रकार साभिमान जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिमवार्तिकोंको समाधानार्थ कहते हैं।
सौधर्मेत्यादिसूत्रे च द्वंद्ववृत्तिविभाव्यते । सौधर्मादिविमानानामुपर्युपरि नान्यथा ॥२॥ आनतप्राणतद्वंद्वमारणाच्युतयोरिति । सूचनादंतशः सा च कल्पेष्वेवैकशस्ततः ॥३॥ अवेयकेषु नवसु नवस्वनुदिशेष्वियं । ततोनुचरसंज्ञानां पंचानां सेष्यतेर्थतः ॥ ४ ॥
" सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तर " इत्यादि सूत्रमें कहे गये सौधर्म आदि विमानोंका ऊपर ऊपर द्वन्द्व यानी युगलरूपसे वर्तना विचार लिया जाता है । अन्य प्रकारोंसे यानी एक एकके ऊपर वर्तते हुये यों सोलह पटल होंय या चार चारका चतुष्क समभागमें बनाकर सोलह स्वगौके चार ही चतुष्क या पटल कर दिये जाय इत्यादिक ढगोंसे ऊपर ऊपर वर्तना नहीं है। क्योंकि अन्तमें पडे हुये आनत प्राणत का द्वन्द्व कर पुनः आरण और अच्युतोंका द्वन्द्व किया गया है । अतः सूचित होता है कि जैसे आनत, प्राणत, और आरण अच्युतोंके युगल समानभागोंमें रचे होकर ऊपर ऊपर है, उसी प्रकार सौधर्म, ऐशान, आदिके युगल भी दो दो स्वर्गीकी समतुला होकर ऊपर ऊपर रच रहे हैं । अन्यथा लाघनके लिये आनत आदि चारोंका द्वन्द्व कर एक ही योग किया जा सकता था। हां, पहिले बारह स्वर्गीका लाघवार्थ द्वन्द्व समास कर दिया है । और उनके ऊपरके दो युगलोंका समास नहीं करनेसे युगलरूपसे सब स्वर्गीका वर्तना सूत्रकार द्वारा सूचित कर दिया गया है। वह युगलरूपसे हो रही वृत्ति बारह कल्प यानी सोलह स्वर्गों में ही है। असे परली ओर नौ प्रैवेयकोंमें नौ अनुदिशोंमें और उससे ऊपर पांच अनुत्तर संशक विमानोंमें यह वर्तला एक