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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ऊपर उछल कर सौधर्म, ऐशान, ये दो कल्प दक्षिण और उत्तर दिशाओंमें व्यवस्थित हैं । इनमें ऋतु आदिक इकतीस पटल हैं । दक्षिग दिशाका अधिपति सौधर्म इन्द्र है और उत्तर दिशाके श्रेणी विमान और पुप्पप्रकीर्णकोंका अधिकारी ऐशान इन्द्र है। सबसे ऊपरले प्रभा संज्ञक पटलमें कारक विमानसे दक्षिणदिशामें अठारहवें श्रेणी बद्ध विमानमें सौधर्म इन्द्र रहता है । उसी प्रकार बोस श्रेणीबद्ध विमानवाली उत्तर दिशाके अठारहवें विमानमें ऐशान इन्द्रका निवास है । एक एक पटलमें असंख्याते योजनोंका अन्तर है। समतल भूभागसे ऊपर डेढ राजू स्थानतक सौधर्म, ऐशान, इन्द्रोंका आधिपत्य है । सौधर्म ऐशान स्वर्गासे अनेक योजन ऊपर अथवा मेरुतलसे ठीक डेढ राजू ऊपर सानत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्गोका प्रारम्भ है । अंजन आदि सात पटलवाले ये दो स्वर्ग दक्षिण उत्तर समान तुलामें रचे हुये हैं। कुछ कम डेढ राजूतक इनका अधिकार है । मेरुतलते तीन राजू ऊपर समतुला स्थानमें ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग बने हुये हैं । इन दोका अधिपति ब्रह्मा नामका एक इन्द्र है। आधे राजू ऊपर तक इनका साम्राज्य है । मेरुत से साडे तीन राजू ऊपर चल कर लांतत्र और कापिष्ठ स्वर्ग बरोबरमें रचे हुये हैं। इन दोका अधिपति एक ही लांतब इन्द्र है । इसके ऊपर कुछ कम आधा राजू चलकर शुक्र, महाशुक्र दो स्वर्ग दक्षिण और उत्तरकी ओर विन्यस्त हैं । इनका अधिपति एक शुक्र इन्द्र है । इसके ऊपर कुछ कम आधा राजू यानी मेरुतलसे साडे चार राजू ऊपर उछल कर सतार और सहस्रार ये स्वर्ग समानभागमें रचे हुये हैं । इन दोका अधिपति सतार नाम का एक इन्द्र है । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध इन पांचों दिशाओंमें आधे आधे राजूतक इसका अधिराज्य है । सतार, सहस्रारसे कुछ कम आधा राजू ऊपर आनत, प्राणत, दो स्वर्ग हैं। इनके दक्षिण दिशा सम्बधी और उत्तरदिशासम्बन्धी अधिपति दो इन्द्र हैं । इनसे आधे राजू ऊपर उछल कर यानी मेरु तलसे साडे पांच राजू ऊपरसे आरण अच्युत स्वर्ग प्रारम्भ हो जाते हैं, जो कि दक्षिण उत्तर दिशामें समतुला कोटिपर व्यवस्थित हैं । मेरुतलसे छह राजू ऊपर उपरिम एक राजूके निचले भागमें नौं प्रैत्रेयक विमानोंके नौ पटल हैं । इनके ऊपर नौ अनुदिश विमानोंका एक पटल है जिसमें कि चार दिशाओं और चार विदिशाओं तथा एक मध्यमें यों नौ विमान रच रहे हैं। इसके ऊपर पांच अनुत्तरों के पांच विमान हैं । सर्वार्थसिद्धिसे बारह योजन ऊपर सिद्ध क्षेत्र है। सर्वार्थसिद्धि और सिद्धलोकके अन्तरालमें एक राजू चौडी सात राजू लम्बी आठ योजन मोटी लोकान्तस्पर्शिनी आठवीं " ईपत्प्राग्भारा " नामकी पृथिवी है । इस पृथिवीके ठीक बीचमें मनुष्यक्षेत्रबराबर लम्बी चौडी आठ योजन मोटी गोल सिद्रशिला जड रही है, जो कि सिद्धलोक नामसे कही जा रही आधे लड्ड्के समान नीचे समतल और ऊपर क्रमसे घटती हुई ढलाऊं होकर उठी हुई है। उस सिद्ध प्रतिष्ठान क्षेत्रके ऊपरले या लोकमें सबसे ऊपर बडे धनुषोंसे नपे पन्द्रहसौ पिचत्तर १५७५ धनुष मोटे तनुवातके पन्द्रहसौवें या नौ लाख भागमें उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहनावाले अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं । उनको त्रियोगसे हम नमस्कार करते हैं। एक सही एक बटे बीस महाधनुषमें बडी अवगाहनाके सिद्ध हैं .
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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