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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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उस स्वर्ग के अनादिकालीन निवासभूत कल्प
पहिले स्वर्गमें सुधर्मा संज्ञक सभाका एक बहुत विशाल भवन बना हुआ है, जिस स्वर्ग में वह सुधर्मा सभा बनी हुई है वह कल्प सौधर्म स्वर्ग है " तदस्मिन्नस्ति " इस तद्धितके सूत्र करके यहां सुधर्मा शब्द से अण् प्रत्यय कर सौधर्म शब्दको प्राधु बना लिया जाता है, उस सौधर्म कल्पके हर पसे पहिले स्वर्गका इन्द्र भी सौधर्म कहा जाता है अथवा स्वभावकरके अनादिकाल से इन्द्र या स्वर्ग का नाम सौधर्म पड रहा है । इसी प्रकार स्वभावसे ही ईशान नामका इन्द्र है, ईशान इन्द्रका निवास हो रहा दूसरा कल्प ऐशान है। यहां " तस्य निवासः " इस तद्धित सूत्रसे अण् प्रत्यय कर ऐशान शब्द उत्पन्न कर लिया गया है सहचरपनेसे इन्द्रको भी ऐशान कह दिया जाता है । तृतीय स्वर्ग में संज्ञाके वश स्वभावसे ही सनत्कुमार इन्द्र चला आ रहा है । उसका स्वानत्कुमार है । यहां भी " तस्य निवासः " इस सूत्र करके अण् प्रत्यय कर लेना चाहिये। उस सानत्कुमार स्वर्ग के सहचरपनेसे इन्द्र भी सानत्कुमार कहे जा सकते हैं । मत्वर्थीय अच् प्रत्ययकर के भी यहां निर्वाह किया जा सकता है । महेन्द्र नामका इन्द्र स्वभावसे ही है । उसका निवासस्थान कल्प महेंद्र है । उस महेन्द्र स्वर्ग में धाराप्रवाहरूपसे जो इन्द्र होते चले आ रहे हैं उस स्वर्गके सहचरपनेसे वे इन्द्र भी माहेन्द्र हैं । ब्रह्मा नामक इन्द्र हैं उस इन्द्रका लोक पांचवां ब्रह्मलोक नामका कल्प है और ब्रह्मोत्तर नामका छठा कल्प है। इसी प्रकार लान्तवको आदि लेकर अच्युतपर्यन्त इन्द्रोंकी व्यवस्था स्वभावसे ही होती चली आ रही है। उसके सहचरपनेसे लांतंत्र आदिक कल्प भी अनादि सिद्ध संज्ञाओंको धार रहे हैं । स्वर्ग या कल्प अनादि अनन्तकालतक प्रवर्त रहे हैं । किन्तु उनमें देव या इन्द्र निवास कर रहे अपने आयुष्यको नियतकालतक सुखपूर्वक बिता रहे हैं । उन उन स्वर्गीमें जन्म लेनेवाले इन्द्र धारा प्रवाहसे उन्हीं नामोंको धारते हैं । इस चौदह राजू ऊंचे लोकको या केवल ऊपरले सात राजू के इन्द्र कोकको यदि पुरुषाकार नियत कर लिया जाय तो उसकी ग्रीवा ( नार) के स्थानापन्न होने से
के तेरह राजू के ऊपर के कतिपय स्थान ग्रीवायें कहे जायेंगे। ग्रीवाओं में विन्यस्त हो रहे विमान मैवेयक हैं। उन विमानोंके साहचर्य से इन्द्र भी मैवेयक हैं । इनके ऊपर नौ अनुदिश हैं। विजय आदि विमान अन्य लौकिक उत्कृष्ट अभ्युदयका विजय करनेसे यथार्थ नामा कहे जाते हैं। यानी विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये नाम दूसरेको जीतने और किसीसे नहीं पराजित होनेकी अपेक्षा से अपने ठीक अर्थको लेकर घटित हो रहे हैं। उन विमानोंके साहचर्यसे उनमें रहनेवाले असंख्याते अहमिन्द्र भी विजय, वैजयंत आदि नामोंको धार रहे हैं । सम्पूर्ण लौकिक अर्थ की परिपूर्ण सिद्धि हो
के कारण सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक विमान भी अन्य संज्ञक है । उसके साहचर्य से इन्द्र भी 'सर्वार्थसिद्ध है । ऐसे अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धि विमान में संख्याते हैं । अर्थात् " मेहता दिवङ्कं दिवड दलछक्क एक करज्जुमि, कपाणमङजुगला गेयेज्जादी व होति कमे " ( त्रिलोकसार ) मेरुके तसे एक लाख चालीस योजन अथवा इस समतल भूमिसे निन्यानवै हजार चालीस योजन और बालाभ