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तत्वार्थचिन्तामणिः
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और सात बटे. चार हजार महाधनुषमें छोटी अवगाहना के सिद्ध भगवान् विराजमान हैं । मध्यमें अवगाहनाओं के अनेक भेद हैं। वहां भी अनन्तानन्त सिद्ध हैं ।
तस्य पृथग्रहणं द्वन्द्वे कर्तव्येपि स्थित्यादिविशेषप्रेतिपत्यर्थ । सर्वार्थसिद्धस्य हि स्थिति रुत्कृष्टा जघन्या च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा विजयादिभ्यो जवन्यतो द्वात्रिंशत्सागरोपमस्थितिभ्यो विशिष्टा प्रभावतश्च ततोल्पप्रभावेभ्यः इति श्रूयते ।
उस सर्वार्थसिद्धिका यद्यपि विजय आदिकके साथ द्वन्द्व समास कर देना चाहिये था । फिर भी स्थिति, प्रभाव, आदि विशेषों की प्रतिपत्ति कराने के लिये सर्वार्थसिद्धिका पृथक् स्वतंत्र ग्रहण किया
। सर्वार्थसिद्धि विमान में रहनेवाले सर्वार्थसिद्ध देवकी उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति दोनों तेलीस सागरोपम हैं । बत्तीस सागर जघन्य और तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिको वारनेवाले विजय आदि चार वैमानिकोंसे यह जघन्य, उत्कृष्ट, विकल्पोंस रीती हो रही सर्वार्थसिद्ध देवों की स्थिति विशिष्ट है I तथा प्रभाव से भी उन अल्प प्रभाववाले विजय आदि अहमिन्द्रों की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि देवोंका प्रभाव अत्यधिक है । ऐसा शास्त्रों द्वारा आम्नायपूर्वक सुना जा रहा है । विजय आदि चार विमानों में रहनेबाले सम्पूर्ण असंख्याते देवोंका जितना मिलकर प्रभाव है, उससे अधिक सर्वार्थसिद्धि के एक देवका है । इत्यादि विशेषों को दिखलाने के लिये सर्वार्थसिद्धौ ऐसा सूत्रमें पृथक् असमसितपद पडा हुआ T तिन् प्रत्ययान्त होनेसे स्त्रीलिंग माना गया सर्वार्थसिद्धि शब्द भी इन्द्रकी संज्ञा पड जानेसे पुल्लिङ्ग कर दिया जाता है । सर्वार्थसिद्धि और सर्वार्थसिद्ध दोनों शब्द अभीष्ट हो रहे दीखते हैं ।
ग्रैवेयकाणां पृथग्ग्रहणं कल्पातीतत्वज्ञापनार्थ, नवशद्वस्यावृातकरणमनुदिशसूचनार्थे । दिश आनुपूर्व्येणानुदिशं विमानानीति पूर्वपदार्थप्रधामा वृत्तिः दिक्छदस्य शरदादित्वात् आकारांतस्य वा दिशाशद्वस्य भावात् तत्साहचर्यादिंदा अप्यनुदिशास्ते च नव संति ग्रैवेयकाणामुपरीति श्रवणात् ।
ग्रैवेयकेषु " इस पदका पूर्व या उत्तरपदों के साथ द्वन्द्व समास नहीं कर जो पृथक् प्रहृण कर दिया गया है, वह तो ग्रैवेयकों के कल्पातीतपनको समझाने के लिये है । अर्थात् — सौधर्मको, आदि लेकरके अच्युतपर्यन्त बारह इन्द्रोंकी अपेक्षा बारह कल्प हैं। उनसे न्यारे ऊपरले विमान: सब कल्पातीत हैं । इस सिद्वान्त को समझाने के लिये ग्रैवेयकेषु यह पद पृथक् कर दिया है । सूत्र-कारकी एक एक मात्रा अपरिमित अर्थको झेल रही है । यद्यपि ग्रैवेयक नौ हैं । ऐसी दशा में
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'नव च ते ग्रैवेयका नवग्रैवेयका " यों समास कर " नवग्रैवेयकेषु " कह देना चाहिये था । फिर जो. सूत्रकार ने मत्र और मैत्रेयक पद्दोंमें समासवृत्ति नहीं की है, वह नौ अनुदिश विमानोंका सूचन करने के लिये : है। यानी ग्रैवेयकसे ऊपर नौ अनुदिश विमान भी हैं। दिशाओं के अनुपूर्वपने करके बने हुए विमान,