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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः उपर्युपरि तद्धाम नाधस्तिर्यक् च तत्स्थितिः। यथा भवनवास्यादिदेवानामिति निर्णयः ॥१॥ उन वैमानिक देवोंके निवास स्थान ऊपर ऊपर व्यवस्थित हैं । अधोभागोंमें या तिरछे रूपसे उन निवास स्थलोंकी स्थिति नहीं है । जिस प्रकार कि भवनवासी आदि देवोंके धाम नीचे, तिरछे, रचे हुये हैं, ऐसे वैमानिकोंके अकृत्रिम विमानोंकी रचना नहीं है । यह उक्त सूत्र द्वारा निर्णय कर दिया गया है। भावार्थ-चार निकायके देवोंमें पहिले तीन निकायके देव अधः या तिर्यगरूपसे रचे गये भवन, नगर या विमानोंमें निवास करते हैं । किन्तु इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और पुष्प प्रकीर्णक रूपसे व्यवस्थित हो रहे कल्पोपपन्न और कल्पातीत देवाके विमान तो ऊपर ऊपर रचे हुये हैं। यद्यपि सातवीं पृथिवीसे लगा कर पहिली पृथिवतिक नारकियोंके बिले भी इन्द्रक बिल श्रेणीबद्ध बिल, पुष्पप्रकीर्णक बिल रूपसे विन्यस्त हैं। किन्तु ये विमान नहीं हैं । भूमिस्थ बिले हैं । इसी प्रकार ज्योतिष्क देवोंके निवासस्थान विमान हैं। किन्तु वे पुष्पप्रकीर्णक रूपसे भले ही व्यवस्थित होय इन्द्रक श्रेणीबद्ध और उनके मध्यवर्ती पुष्पप्रकीर्णक रूपसे आकाश प्राङ्गणमें व्यवस्थित नहीं हैं। तथा वे बिले और ज्योतिष्क विमान ये कल्पोपपन्नत्व और कल्पातीतत्व विशेषोंसे आक्रान्त भी नहीं हैं । अतः इन्द्रक, श्रेणीबद्ध, प्रकीर्णक, विमान स्वरूप होते हुये कल्पोपपनत्व और कल्पातीतत्व विशेषणोंसे आक्रान्त हो रहे पदार्थ ऊपर ऊपर रचे हुये हैं । यह उक्त सूत्रका पदकीर्तिपुरःसर निर्दोष समन्वय कर दिया गया है। .... न हि यथा भवनवासिनो व्यंतराचावस्तिर्यक् समवस्थितयो ज्योतिष्कास्तिर्यक् स्थितयस्तथा वैमानिका इष्यते, तेषामुपर्युपरि समवस्थितत्वात् उपर्युपरि वचनेनैव निर्णयात् । ...जिस प्रकार कि भवनवासी और व्यंतर देव अधोलोकमें और तिर्यक्लोकमें नीचे या तिरछे रूपसे बने हुये अपने निवासस्थानोंमें भले प्रकार अवस्थितिको कर रहे हैं, रत्नप्रभाके खरभाग और पकभागमें भवनवासियोंके नीचे और तिरछे सुन्दर भवन बने हुये हैं, और व्यन्तरोंके असंख्याते द्वीपसमुद्रोंमें भी रत्नप्रभाके उपरिम भागमें तिरछे फैले हुये असंख्य मगर या आवास बने हुये हैं, तथा नीचे पंकभागमें असुर और. राक्षसोंके असंख्याते. हजार नगर है, एवं असंख्यातासंख्याते ज्योतिष्क देव तो इस समतल भूमिसे ऊपर सात सौ नब्बै योजनसे प्रारम्भ कर केवल एक सौ दश योजमतक मोटे देशमें असंख्यात योजनोंतक एक राजू लम्बे, चौडे, प्रदेशमें तिरछे फैले हुये असंख्य विमानोंमें स्थितिको कर रहे हैं, तिस प्रकार उक्त तीन निकायोंके समान वैमानिक देव स्थिति करते हुये नहीं माने गये हैं। क्योंकि उन वैमानिकोंकी तीन निकायोंसे , विभिन्न रूप रेखाकी ऊपर ऊपर भले प्रकार स्थिति हो रही है। वे यहां वहाँ अस्त व्यस्त नहीं निवस रहे हैं। कारण कि "वैमानिकाः" 76
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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