SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थछोकार्तिक ६०० 1 युक्तं । न हि देवा एव निर्विशेषणा उपर्युपरीत्युच्यते येनानिष्टमसंग ः । किं तर्हि १ मध्यस्येंद्रकतिर्यगवस्थितश्रेणीप्रकीर्णकविमानलक्षणकल्पोपपन्नत्वविशेषणाक्रांताः कल्पातीतत्व विशेषणाक्रांताश्च यथोपवर्णितसन्निवेशाः संबध्यते । तथा च निरवद्यो निर्देशः सर्वानिष्टनिवृत्तेः । तथाहि--- कोई विद्यार्थी प्रश्न करता है कि यहां ऊपर ऊपर इस कथन करके किसी पदार्थका चारों ओरसे सम्बन्ध किया जाता है ? बताओ । क्या देव अथवा क्या विमानोंको एवं कल्पों को या कल्पाती - तोंको ही यहां ऊपर ऊपर अवस्थित बताया है ! या मनमानी रचना समझ ली जाय ! इसके उत्तर में कोई एक विद्वान्झट उत्तर दे बैठते हैं कि यहां कल्प ऊपर ऊपर रच रहे विवक्षित हैं। क्योंकि • पूर्वके कल्पोपपन्ना इस पदमेंसे गौणभूत होरहे भी कल्प शब्द के प्रहणका विशेषणपने करके अभिसंबंध कर लिया जाता है । अर्थात्-पूरे पद कल्पोपपन्नाः की अनुवृत्ति होनी चाहिये थी। कल्पोपपन्न पदमें उत्तरपदप्रधान सप्तमीतत्पुरुष वृत्ति द्वारा उपपन्न शद्व प्रधान है। कल्प शब्द गौण है, फिर भी प्रयोजनवश गौण होरहे - कल्प शब्द की भी अनुवृत्ति की जा सकती है, जैसे कि यह राजपुरुष ( राजाका पुरुष ) है । पुनः " किसका " प्रश्न होनेपर राजाका यह सम्बन्ध विवक्षित हो जाता है । राजपुरुष पदमें गौण हो रहे भी राजा शङ्खकी अनुवृत्ति कर ली जाती है। इसी प्रकार यहां भी निकटवर्तिता होनेसे बुद्धि द्वारा गौणभूत भी " कल्प " अपेक्षित हो रहा है । कल्पातीतोंमें विमानका सम्बन्ध कर लिया जायगा, यों कह चुकने पर आचार्य कहते हैं कि सर्वार्थसिद्धिकार श्री पूज्यपाद स्वामी या राजवार्त्तिककार श्री अकलंक देवके उस समाधानको हम अच्छा नहीं समझ रहे हैं। क्योंकि कल्पशद्वकी अनुवृत्ति कर लेनेसे यहां 66 वैमानिकाः इस प्रकार अधिकार के लिये चला आ रहा जो वचन है, इसका व्याघात हो जायगा । वैमानिकाः का अधिकार कर फिर दूसरे ही सूत्रमें "कल्पाः का सम्बन्ध कर बैठने से स्ववचन व्याघात होता है | अतः जिस प्रकार कि पूर्वसूत्रमें अधिकार प्राप्त हो रहे वैमानिक देवका ही उद्देश्य कर कल्पोपपन्न और कल्पातीत यों विधेय दलके साथ सम्बन्ध जोड प्रकार यहां भी वे वैमानिक ही सम्बन्धित हो रहे यो समुचित प्रतीत होते हैं। ऊपर ऊपर नहीं हैं । प्रत्युत कल्पातीत भी ऊपर ऊपर विन्यस्त हैं । हम जैन रहे देवोंका ही ऊपर ऊपर निवास करना नहीं कह रहे हैं, जिससे कि अनिष्टका यानी देव तो ऊपर ऊपर ठहर जांय, स्वर्ग या पटल तिरछे भी व्यवस्थित हो जांय, तो हम विद्यामें आनन्दको माननेवाले जैनोंको क्या अभीष्ट है ! इसका उत्तर यह है कि मध्यमें स्थित हो रहे इन्द्रक विमान, तिरछे अवस्थित हो रहे श्रेणीविमान और पुष्पप्रकीर्णक विमानस्वरूप कल्पोंसे सहितपन विशेषण करके आक्रान्त हो रहे तथा कल्पातीतपन विशेषणसे आक्रान्त हो रहे एवं उक्त वर्णना अनुसार सन्निवेशको धार रहे विशेष्य देव ही यहां सम्बन्धित हो रहे हैं। और तैसा होनेपर यह सूत्र का निर्देश निर्दोष है । क्योंकि सम्पूर्ण अनिष्ट प्रसंगों की यों निवृत्ति हो जाती है। उसीको स्पष्ट कर ि 1 नार्चिक द्वारा प्रन्थकार दिखाये देते हैं । " " दिया गया है। उसी अकेले कल्प ही तो विशेषणसे रहित हाँ प्रसंग हो जाय ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy