SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 611
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः AnamnamannaamAAA उपर्युपरि ॥१८॥ ..सौधर्म, ऐशान, आदि कल्प और कपातीतों के विमान ऊपर उपर वर्त रहे हैं। आगमकी व्यवस्था अनुसार विमानोंकी या पटलोंकी अवस्थिति है। सामीप्ये धोऽध्युपरीति द्वित्वं तेषामसंख्येययोजनांतरत्वेपि तुल्यजातीयव्यवधानाभावात् सामीप्योपपत्तेः। व्याकरणके “ सामीप्येऽधोऽभ्युपरि " इस सूत्र द्वारा उपर्युपरि यहां समीपपन अर्थको पोतन करनेपर उपरि अव्ययका दो बार प्रयोग किया गया होनेसे द्वित्व होगया है । यद्यपि उन कल्पवासी या अहमिन्द्रोंके विमानोंका ऊपर नीचे अन्तर अथवा त्रेसठि पटलोंमें प्रत्येक दो पटलोंका अन्तर असंख्याते योजनोंका है, तो भी तुल्यजातिवाले पदार्थीका व्यवधान नहीं होनेसे समीपपना बन जाता है । अर्थात्-सौधर्म, ईशान, स्वर्गाके अधस्तन विमानोंसे कुछ कमती डेढ राजू प्रमाण असंख्यात योजनों ऊपर चलकर सनत्कुमार, माहेन्द्र नामक दो स्वर्ग हैं । सनत्कुमार माहेन्द्र के नीचले विमानोंसे कुछ कम डेढ राजू ऊपर चलकर ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग हैं । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर सम्बन्धी आधा राजूका अन्तराल देकर ऊपर लान्तव, कापिष्ठ, स्वर्ग हैं। यों ही आगम अनुसार ऊपर भी समझ लेना । सानत्कुमार माहेन्द्रके अधोभागसे ऊपर डेढ राजूतक सानत्कुमार, माहेन्द्र, देवोंका ही अधिराज्य है, और सानत्कुमार माहेन्द्रके प्रारम्भसे बालाग्र कमती आकाशसे आदि लेकर नीचे कुछ कम डेढ राजू तक सौधर्म ईशानोंका अधिकार है । सौधर्म, ईशान, स्वर्गमें ऋतु विमल आदि इकतीस पटल हैं " एक्केवा इंदयस्य य बिच्चालयसंखजोयणपमाणं " एक एक पटल या इन्द्रक विमानोंका अन्तराल असंख्याते योजन है। किन्तु जगत्में तुल्यजातिवाले पदार्थोंको ही व्यवधायक माना जाता है। मान, अपमान, लज्जा, प्रतिष्ठा सब समान जातिवालोंमें समझी जाती हैं । वृक्षोंकी पाकमें या घोडे, मनुष्य आदिकी पंक्तियों में भले ही बीचमें आकाश, तृण, वायु, आतप, वन, खम्भे, आजायं फिर भी तुल्यजातिवाले पदार्थोका मध्यमें समावेश नहीं होनेसे उनमें अन्तराल नहीं माना जाता है । प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा हुये प्रतिभासमें भले ही अन्य उत्पादक कारणोंका व्यवधान होय, किन्तु ज्ञान जातीय अन्य प्रतीतिओंका व्यवधान नहीं पडनेसे विशदपना आरूढ माना गया है । इसी प्रकार कल्पोपपन्न और कल्पातीत वैमानिकोंमें अन्य वैमानिकोंका या पटलोंका व्यवधान नहीं पडनेसे समीपपना बन जाता है। किमत्रोपर्युपरीत्यनेनाभिसंबध्यते ! फल्पा इत्येके । कल्पोपपन्ना इत्यत्र फल्पग्रहणस्यो. पसर्जनीभूतस्यापि विशेषणेनाभिसंबंधात् । राजपुरुषोऽयं, कस्य राज्ञ इति यथा प्रत्यासवेर्बुद्ध्यपेक्षितत्वादिति । वन बुध्यामहे, वैमानिका इत्यधिकारार्थ बचनमित्येवस्य व्याघावात् । यथा हि वैमानिका देवाः कल्पोपपना कल्पानीवाश्चेति संबध्यते तथोपर्युपरोत्यपि व पवेषि
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy