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________________ उपज बैठते हैं। छोटासा काल परमाणु एका कुटुम्बाधिपतिके समान वर्त रहा उन भिन्न भिन्न प्रकृति-वाले अनेक प्राणियों या जड पदार्थोंको अनुकूल वर्ताने में उपयोगी होता रहता है। सूक्ष्म दृष्टि विचारा जाय तो आकाशके एक एक प्रदेशपर अनेक द्रव्योंके सदृश विलक्षण, विरुद्ध, महाविरुद्ध अपरिमित परिणाम कार्य होरहे हैं । बस, अनन्त स्वभाववाला एक कॉल परमाणु ही उन सम्पूर्ण कायको संभाल लेता है। इसी प्रकार आकाशके दूसरे प्रदेशपर अनेक द्रव्योंके होरहे पुण्यक्रिया, पाप-किया, सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन, व्यभिचार, ब्रह्मचर्य, नरकगमन, स्वर्गगमन, निगोदप्राप्ति, मोक्षप्राप्ति: अर्थहानि, अर्थलाभ, श्रृंगाररस, वैराग्यरस, वीरता, कायरता, स्मरण विस्मरण, जीवन मृत्यु, तरुणपन अतिवृद्धपन, रोग स्वस्थता, न्याय अन्याय, दयां हिंसा, पतन उत्थान, मान अपमान, सौन्दर्य कुरूपता, अथवा मेघवर्षण वात्या, सुगन्ध दुर्गंध, जलवर्षण आतप, सुस्वादु दुःस्वादु, फोका सडना पकाना, पुष्पप्राप्ति फलप्राप्ति, औषधिउत्पादन विषउत्पादन, हीरा उपजना कोयला उपजना) एक ही वृक्ष कफजनक कफनाशक शक्तियें बनना, सीपमें हड्डी या मोती बनना, स्थान प्रस्थान, धातुधारण धातुपात, जीर्णता नवीनता, मृत्तिका उत्पत्ति सुवर्ण उत्पत्ति, विधुरता विवाहिता, पागलपन चातुर्य, आदि परिणामोंको दूसरा कालाणु अपने अनेक स्वभावों द्वारा समान लेता है। जैसे कि एक प्रधानाध्यापक अपने अधीन होरहे अनेक अध्यापक अथवा छात्रगण एवं अन्य कर्मचारियोंको अंतरंग बहिरंग: कारणों द्वारा कर रहे नियत कार्योंकी ओर वर्ता देता है। इस कारण द्रव्य रूपसे अथवा भाव रूपसे कालका विभाग सहितपना साध्य करनेपर हम जैमोंके ऊपर कोई सिद्ध:साधन दोष नहीं है । क्योंकि तुम न तो कालको द्रव्यरूपसे अनेक मानते हो और गुण, परिणाम, स्वभाव इन भावोंकी अपेक्षा भी कालको अनेक नहीं मानते हो। अतः असंख्य कार्य द्रस्य और उन एक एकके अनन्त स्वभावोंको उक्त अनुमान द्वारा जो हम साध रहे हैं, वही वादी जैनकी अपेक्षा सिद्ध होते हुए भी प्रतिवादी नैयायिक, मीमांसक, वैशेषिक आदिकी अपेक्षा असिद्ध हो रहे पदार्थको ही साध्य बनाया जा रहा है तथा हमारा हेतु आकाश आदि करके व्यभिचारी भी नहीं है। क्योंकि द्रव्य अपेक्षा तो नहीं, किन्तु प्रदेश या पर्यायोंकी अपेक्षा हम जैन आकाशको भी विभाग काळा स्वीकार करते हैं । अतः हमारा हेतु निर्दोष है। सित्यादिनिदर्शनं साध्यसाधनविकलमित्यपि न मंतव्यं तत्कार्यस्यांङ्करादेवि भागवतः प्रतीतेः, क्षित्यादेश्व द्रव्यतो भावतश्च विभागवत्त्वसिद्धेरिति सूक्तं " विभागरहिते हेती विभागों न फळे कचित् " इति । फिर भी वैशेषिक यदि यो मान बैठें कि क्षिति, जल आदि दृष्टान्त तो साम्यदल या साधन दलसे विकल हैं। प्रन्थकार कहते हैं कि यह भी मनमें नहीं मान बैठना चाहिये । क्षिति आदिको कार्य हो रहे अनु, पाषाण, उन 'वादिकपदार्थ तो TS
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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