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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिक - हो रहे हैं । अर्थात्-एक खेतमें उसी महीसे गेंहू, जौ, चना, मटर सरसों आदिके अनेक अंकुर उपज रहे हैं, चाहे कैसा भी ऊंचा, नीचा, टेडा, मुख करके बीजको डाल दो, मट्टी उसका अंकुर ठीक ऊपरकी ओर निकाल देती है। वही मट्टी तत्काल जल, वायु, आतप, की आदि या शुष्क परिणतियोंका आकर्षण कर लेती है । खात पदार्थोका अंकुर पुष्प, फल, घास आदि रूप परिणाम करा देती है, जैसे कि सुयोग्य कुटुम्बिनी पत्नी अपने कुटुम्बसम्बन्धी जेठ, पति, देवर, लडके, बच्चे बहू बेटियों, वृद्ध सास ससुर आदिके लिये यथोचित भोग्य उपभोग्य पदार्थोका विभाग कर देती है। पृथिवीसे अनेक कार्य हो रहे प्रत्यक्ष सिद्ध हैं । जलसे भी अनेक कार्य हो रहे हैं, एक मेघजल ही अनेक वनस्पतिओंमें भिन्न भिन्न परिणति कर रहा है । सांपके मुखमै, सीपमें, उष्ण तेलमें, तप्त लोहे पर अनेक विभक्त कार्योको कर रहा है। सरोवरका जल तूंबीको ऊपर उछाल रहा है और कंकडको नीचे गिरा रहा है । ऊपरसे तूंवीको नीचे नहीं गिरने देता है और कंकडको ऊपर नहीं उछलने देता है । अग्नि या वायुके भी विभिन्न जातीय कई विभक कार्य युगपत् हो रहे दीखते हैं । कृत्रिम बिजिली द्वारा अंजन, पंखा, चक्कियां चलायी जाती हैं। अनेक दीपक ज्योतियां चमक रही हैं । बिजिली द्वारा रोगीकी चिकित्सायें भी होती हैं । तारों द्वारा या विना तारके शब्द फेंके जाते हैं। दूर: प्रदेशोंसे गायन यहां सुना जाता है । तस्वीरें ली जाती हैं । और अकृत्रिम बिजुलीसे अनेक उत्पात हो जाते हैं । वायु द्वारा जगतकी बडी भारी प्रक्रिया सध रही है । असंख्य मनों भारी पदार्थ वायुपर डट रही है । जीवनके आधार श्वासोच्छ्रास वायुस्वरूप है। समुदकम्पन, वातव्याधि, आंधी,' आदि सब विभिन्न वायुओंके फल हैं । पृथिवी आदिक पुद्गल द्रव्योंकी अचिंत्य शक्तियां हैं । अचेतन पदार्थोमें भी अनन्त बल है । " जीवाजीवगदमिति चरिमे " यों गोम्मटसारमें भी कहा है। विभिन्न जातिके भेद प्रभेदोंको धारनेवाले पृथिवी, जल, आदि प्रसिद्ध ही है। अतः क्षिति आदिक दृष्टान्तोंमें विभागवाले फलोंका निमित्तपना यह हेतु और विभागसहितपना इतना साभ्य सुलभ्य होकर ठहर रहा है। कारण कि द्रव्यरूपसे और परिणामों स्वरूपसे क्षिति आदिकोंको मूलमें ही विभागसहितपना सिद्ध है। इस कारण श्री विद्यानन्द आचार्यने उक्त वार्त्तिकमें यह बहुत अच्छा कहा था कि विभागरहित हेतुके होनेपर कार्यमें कहीं भी विभाग नहीं हो सकता है। स्फटिकमाणिः जब मूलमें रूपवान् है तो जपाकुसुम आदिके योगसे लाल, पीला, आदि हो सकता है । मूलमें रूपरहितं होरहे आकाशको कोई लाल, पीला नहीं कर सकता है। अतः यहांतक आकाश को केवल भावोंकी अपेक्षा विभागसहितपन और कालको द्रव्य और भाव दोनोंकी अपेक्षा विभाग सहितपन साधनेका प्रकरण समाप्त हो चुका है। .मनुष्य लोकसे बाहर ज्योतिष्क विमान हैं भी ? या नहीं हैं ! यदि हैं तो किस प्रकार धर्त रहे हैं? शिष्योंको इस विषयकी प्रतिपत्ति कराने के लिये श्री. उमास्वामी महाराज अगले सूत्रको कहते हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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