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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ५९१ 66 " ' हि गुणपर्ययवदद्रव्यमिति गगनादीनां द्रव्यलक्षणमस्ति तन्महत्वादीनां च द्रव्याश्रिता निर्गुणा गुणा इति गुणलक्षणं तथावयवानामेकत्वपरिणामः प्रदेशिद्रव्यमिति प्रदेशिलक्षणं गगनादीनामत्रयुतोऽवयवः प्रदेशलक्षणं तदेकदेशानामस्तीति युक्तस्तेषां प्रदेशप्रदेशिभावः । यहां किसीका आक्षेप प्रवर्तता है कि आकाश आदि द्रव्य और उनके नियत अनन्ते या असंख्याते प्रदेश जब अनादिकाल के हैं तो ऐसी दशामें उनका " प्रदेश प्रदेशीभाव " होना भला वास्तविक मार्ग में प्रस्थान करनेवाला कैसे समझा जायगा ? बताओ । देखो, सादि हो रहे ही तंतु पट, कपाल घट, पत्र, पुस्तक आदिकों का वह प्रदेशप्रदेशीभाव या अवयव अवयवीभाव देखा जाता है, जैसे थैली और रुपयोंका आधार आधेयभाव है या पुत्र और पिताका जन्य जनकभाव है । यों कटाक्ष करनेपर तो ग्रन्थकार उस कटाक्षकर्ता बैशेषिकको पूंछते हैं कि भाई इस अवसरपर तुम्हारे यहां भी अनादिनिधन हो रहे आकाश, दिशा, जल, परमाणु, मन आदिक द्रव्य और उनके परम महापरिमाण, एकत्व संख्या, नित्यसंयोग, शुक्लरूप, अणुपरिमाण आदि गुणों का भला गुणगुणीभाव विचारा पारमार्थिक कैसे सिद्ध हो सकेगा ? बताओ, प्रथम गुणी उपजे, पश्चात् यदि उसमें गुण आकर समवायसम्बन्धसे प्रविष्ट हो जाय, तब तो घट घटरूप, आम्र, आम्ररस, आदि सादि पदार्थों का गुणगुणभाव शोभता है। अनादि अनन्तद्रव्य या अनादि अनिधन गुणोंमें गुणगुणीभाव अच्छा नहीं लगता है, यों यह चोद्य तुम्हारे ऊपर भी उठाया जा सकता है । यदि तुम वैशेषिक यों कहो कि अनादिनिधन हो रहे द्रव्यगुणों का भी गुण और गुणीके लक्षणका योग हो जानेसे तिस प्रकार " गुणगुणीभाव " ( सम्बन्ध ) हो जायगा । कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो अनादि अनिधन गगन आदि और उनके प्रदेशों के भी प्रदेशी और प्रदेशके लक्षणका योग हो जानेसे " प्रदेशप्रदेशीभाव " हो जाओ । अखण्डित अनेक देशवाले गगन आदिमें प्रदेशीका लक्षण घटित हो जाता है, और तिर्यग्अंश - कल्पनस्वरूप प्रदेशों में उनके प्रदेश हो जानेका लक्षण घटित हो रहा है। देखो, जिस ही प्रकार " गुण और पर्यायोंको धारनेवाले द्रव्य होते हैं यह श्री उमास्वामी आचार्य करके कहा गया द्रव्यका लक्षण गगन, धर्म द्रव्य आदिके विद्यमान है । और " द्रव्यके आश्रित हो रहे सन्ते स्वयं जो निर्गुण पदार्थ हैं गुण होते हैं, इस प्रकार गुणका लक्षण उन गगन आदिमें सम्बन्धी हो रहे परम महत्त्व, रूप, आदि गुणोंके घटित हो रहा है, उसी प्रकार " अनेक अवयवोंका पिण्डस्वरूप एकत्र परिणामसे आक्रान्त हो रहा प्रदेशी द्रव्य है " इस प्रकार प्रदेशीका लक्षण आकाश आदिमें विद्यमान हैं और " अखण्ड द्रव्यमें अब यानी पश्चात् तिर्यग्अंश कल्पना द्वारा अभेदरूपसे युत यानी मिश्रण हो चुके अवयव पदार्थ तो प्रदेश हैं " यह प्रदेशों का लक्षण उन आकाश आदिके एक देश हो प्रदेशको विद्यमान है। इस कारण अनादि अनन्त भी आकाश आदि और उनके प्रदेशों का "" प्रदेश प्रदेशी भाव " बन जाना युक्तिपूर्ण है। 31 1 । ""
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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