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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके अधिक प्रदेशोंको धार रहे पदार्थों को इतने नियत परिमाण करके निर्णीत किये गये अवयवोंसे सहितपनका विरोध है । भावार्थ — जो कदाचित् होनेवाला अशुद्ध द्रव्य है, वह इतने ही यों नियत 1 किये गये अवयवोंको धारनेवाला नहीं है। और जो सदासे नियतप्रदेशों को धार रहा द्रव्य है, वह कदाचित् होनेवाला अशुद्धद्रव्य नहीं है । उन द्रव्यों में आकाशदव्य तथा धर्म अधर्म और एक जीवद्रव्ये सदनियत अवस्थित प्रदेशोंको धार रहे हैं, जिस कारण से कि नियत संख्या में अवधारे गये प्रदेशों सहितपन करके आकाश आदि द्रव्यों को पांचवे अध्यायमें स्वयं सूत्रकार द्वारा कह दिया जावेगा । 66 आकाशस्यानन्ताः " " असंख्येया प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम् " इन दो सूत्रों करके आकाशके अनन्तानन्त प्रदेश और धर्म, अधर्म, एक जीव इनके असंख्याते प्रदेश नियत हो रहे कह दिये जायेंगे । संसार में परिभ्रमण कर रहा जीव चींटी, हाथी, मत्स्य, नारकी सूक्ष्म निगोदिया, वृक्ष आदि अनेक छोटी बड़ी पर्यायोंको धारता है। इन पर्यायोंमें जीव के प्रदेश कमती बढ़ती नहीं हो जाते हैं । किन्तु जीवकी रबडके समान संकोच या विस्तार अवस्थामें वे सभी लोकाकाशप्रमाण प्रदेश सदा विद्यमान रहते हैं । जो जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है, उस जीवको कदाचित् भी लोक प्रदेश बराबर अपने प्रदेशोंको फैलाकर लम्बी चौडी पर्यायको धारने का जो मोक्षको जाते हैं, उनमें से कतिपय जीवों को तेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्घात करते समय केवल एक समय अपने सम्पूर्ण प्रदेशोंके फैलाने का अवसर मिल जाता है । यह भी एक बडा विलक्षण विस्मयकारी प्रसंग है कि अनन्तानन्त जीवोंमेंसे कतिपय अनन्त जीव ही अनादि अनन्त कालों की अनन्तानन्त संकोच विस्तारवाली परिणतियों को सदा धारते हुये एक ही बार लोकप्रदेश बराबर व्यक्त स्वकीय पर्यायको धार सके हैं। अस्तु । कुछ भी हो, एतावता संकोच, विस्तार, अवस्थामें भी जीवके असंख्यात प्रदेशोका सद्भाव मर नहीं जाता है। यदि कोई धनपति कृपणतावश अपने विद्यमान लाखों रुपयेका व्यय नहीं कर पाता है, इतने ही से उसके लाखों रुपयोंकी संख्या न्यून नहीं हो जाती है। तथा उक्त सूत्र अनुसार उन गगन आदि द्रव्योंका अपने उन अनन्त या असंख्याते प्रदेशोंके साथ हो रहा प्रदेशप्रदेशीभाव अनादि है । अतः ऐसे नियतप्रदेशस्वरूप अवयव उन आकाश आदि द्रव्यों के विद्यमान हैं । अतः हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं है । यह बात दूसरी है कि अखण्ड आकाशका विभागसहितपना हम प्रदेशोंकी अपेक्षा मान रहे हैं । और कालका विभाग - सहितपना हम जैन द्रव्योंकी अपेक्षा उक्त अनुमान द्वारा साध रहे हैं। अवसर नहीं मिलता है । हां, 1 ५९० कथमनादीनां गगनादितत्प्रदेशानां प्रदेश प्रदेशिभावः परमार्थपथप्रस्थायी | सादीनामेव तंतुपटादीनां सद्भावदर्शनात् इति चेत्, कथमिदानीं गगनादितन्महत्त्वादिगुणानामनादि - निधनानां गुणगुणिभावः पारमार्थिकः सिध्येत् । तेषां गुणगुणिलक्षणयोगाचथाभाव इति चेत्, तर्हि गगनादि तत्प्रदेश / नामपि प्रदेशि प्रदेशलक्षणयोगात् प्रदेश प्रदेशिभावोस्तु । यथैव
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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