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________________ तलापतामणिः ५८९ क्यवत्वस्य च विरोधात् । तत्र गगनं धर्माधर्मेकजीवाश्चावस्थितप्रदेशाः सर्वे यतोवधारितपदे अत्त्वेन वक्ष्यमाणत्वात् प्रदेशप्रदेशिभावस्य च तेषां तैरनादित्वात् । अब आचार्य महाराज इसका प्रत्याख्यान करते हैं कि गगन, धर्मद्रव्य आदिके प्रदेशसहितपनका परमार्थरूपसे ही निश्चय हो रहा है। क्योंकि उन गगन आदिके सर्वदा अवस्थित हो रहे अनन्तानन्त प्रदेश या असंख्याते प्रदेश वस्तुतः निति हैं। अर्थात्-त्रिलोकसास्की टीकामें अनन्तानन्त नामकी विशेष संख्याके मध्य भेदोंको निकालते हुये श्री माधवचन्द्र त्रैविद्यने द्विरूपवर्गधारामें जीवराशिके ऊपर अनन्त स्थान चल कर पुद्गल राशिको बताया है । और पुद्गलराशिसे अनन्तस्थान चल कर द्विरूपवर्गधारामें भूत, भविष्यत् कालके समयोंकी राशिको उपजाया है। उस काल समयोंकी राशिसे अनन्त स्थान चल कर द्विरूपवर्ग धारामें अलोकाकाशकी श्रेणीको उपजाया है । एक प्रदेश लम्बी, एक प्रदेश चौडी और पूरे आकाश प्रमाण ऊंची आकाशकी श्रेणि ही श्रेणि आकाश है । इसका एक बार वर्ग कर देनेपर प्रतराकाश होजाता है । आकाश श्रेणके प्रदेशोंका घन कर देनेपर पूरे आकाशके प्रदेश गिन लिये जाते हैं। जोकि मूलप्रन्थ अनुप्तार वहां ही द्विरूप धन धारामें सर्वांकाशको त्रैविद्य महोदयने गिना दिया है । यो आकाशद्रव्यके मुख्य प्रदेशोंकी संख्या सर्वदा नियत होरही अवस्थित है। धर्म द्रव्य और अधर्म दल्यके भी लोकप्रदेश प्रमाण असंख्याते प्रदेश नियत हैं । दूसरी बात यह है कि गगन, धर्मद्रव्य, आदिको एक एक द्रव्यपना निर्णीत है । अतः इनका अवयवोंसे बनाया जाना हमको भी अभीष्ट नहीं है । हां इनके मुख्यप्रदेश स्वरूप अवयव माने जा सकते हैं । चूंकि अवयव दो प्रकारके होते हैं । एक तो सर्वदा स्वकीय शरीरोंको सदा अवस्थित रखनेवाले अवयव हैं । और दूसरे स्वकीय शरीरको अवस्थित नहीं रखनेवाले अवयव हैं । उन दो प्रकारके अवयवोंमें द्रव्यके सदा अवस्थित होरहे प्रदेश तो गुणोंके समान सर्वदा अवस्थित ही रहते हैं । अन्यथा यानी प्रदेशोंको अनवस्थित माना जायगा वो द्रव्यके भी अनवस्थितपनेका प्रसंग होगा । किन्तु द्रव्य तो अनादि अनन्तकालतक अपनी नियत संख्याओंमें व्यवस्थित रहती हैं। घटती बढती नहीं हैं । " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " । अर्थात्-द्रव्यकी ऊोश कल्पना अनुसार जैसे गुण उसमें अनादि अनन्त कालतक जडे हुये हैं, उसी प्रकार तिर्यग् अंश कल्पना अनुसार द्रव्योंके प्रदेश भी सदा अवस्थित हैं। हां, अशुद्ध द्रव्यस्वरूप पुद्गल पर्यायोंके प्रदेश अवस्थित नहीं हैं । दूसरे पट, पुस्तक, आदिके समान अवस्थित अशुद्ध द्रव्योंके प्रदेश तो तंतु, पत्र, आदिक अनवस्थित हैं । क्योंकि उन तंतु आदिकोंके यदि अवस्थित माना जायगा तो पट आदि अशुद्धद्रव्योंको भी अवस्थितपनेका प्रसंग होगा। अर्थात्तंतुओंके यहां वहां सरक जानेपर या न्यून अधिक होजानेपर पट आदिका सरकना या न्यूनता, अधिकता जो दिखाई देरही है वह अनवस्थित नहीं दीख सकेगी। अतः घठ पट, पुस्तक आदिके प्रदेश दूसरी जातिके अनवस्थित शरीरवाले माने गये हैं। कभी कभी उपज रहे या कभी न्यून और कदाचित्
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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