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________________ तलालोकवातिक गमन, मादि कार्योकी उत्पत्तिमें निमित्तपना बन रहा है । आकाश, धर्मद्रव्य, इन सबके प्रदेश माने गये है। अपने न्यारे न्यारे प्रदेशोंपर न्यारे न्यारे अवगाह्मोंको आकाश अवगाह दे रहा है । एक प्रदेशमें अनन्त द्रव्य भी ठहर सकते हैं । इसके लिये भी अनन्तामन्त स्वभावों की शरण लेना अष्टसहबीमें पुष्ट कर दिया गया है। अत: इनारा हेतु याचा नहीं है। ननु च यद्यवयमभेदो विमानस्तदा नासौ गानादावस्ति तस्यैकद्रव्यत्वोपगमात् । पदादिवदवयवारभ्यत्वानुपातेध ! अथ प्रदेशाचोपचारो विभागस्तदा कालेप्यस्ति, सर्वगतैकृकालपादिनापाकाचादिवदुपचरित देशकालस्य विभागवत्त्वोपगमात् तथा च तत्साधने सिद्धसायनमिति कश्चित् । कालको वस्तुतः एक ही माननेवाला कोई पण्डित ( वैशेषिक ) यों पूर्वपक्ष उठाता है कि बाप जैनोंने काल को विभागवाला जो सिद्ध किया है, वहां विभागका अर्थ यदि स्वकीय अवयवोंका भिल मिन होना है ! तब तो वह विनाग इन आकाश, ईश्वर, दिशा, आदिमें नहीं है । क्योंकि उस गगन नादि अखण्डपदायोंको एक द्रव्यपना स्वीकार किया गया है । तथा पट, गृह, घटीयंत्र मादिक जैसे स्वकीय छोटे छोटे भषय गोंके द्वारा बनाये गये हैं, उस प्रकार स्वकीय अवयवोंसे आरअपना बाकाश आदिमें नहीं बन पाता है। ऐसी दशामें आप स्याद्वादियोंके हेतुका गगन आदिसे व्यभिचार बना रहना तदवस्थ रहा, यानी विभागवाले कलोंका निमित्तकारण गगन है। किन्तु स्वयं अवयवाः भेदस्वरूप विभाग नहीं वार रहा है। अब यदि आप जैन विभागका अर्थ आकाशमें मुख्य प्रदेशोंको नहीं मानते हुये प्रदेश तहितपनमा उपचार होना मात्र करेंगे, तब व्यभिचारका पारण से हो जायगा । गगनमें हेतुने रहते हुये उपचरित प्रदेश स्वरूप विभागोंसे सहितपना विद्यमान है। किन्तु तब तो कालमें भी प्रदेश हितपनका उपचारस्वरूप विभाग विद्यमान है। क्योंकि सर्वत्र व्यापक एक ही कालद्रव्यको स्वीकार करनेवाडे वैशेषिकोंके यहां आकाश आदिके समान उपपरित प्रदेशवाले कालव्यका विभागसहितपना स्वीकृत कर लिया है । और ऐसा होनेपर काल ब्रम्पमें उस उपचरित प्रदेशस्वरूप विभागको साधनेमें तुम स्याद्वादियोंके ऊपर सिद्ध साधन दोष बागू होता है। एक कालके उपचरित प्रदेश हमारे यहां सिद्ध ही हैं । उन्हींको आप जैन साध रहे । यहांतक कोई वैशेषिक या नैयायिक कह रहा है । परमार्थ एव गगनादेः सप्रदेशत्वनिश्चयात् तस्य सर्वदावस्थितप्रदेशत्वात् एकद्रव्यत्वाच' दितिमा अवयवाः सदावस्थितवपुषोनवस्थितवपुषश्च । गुणवत्तत्र सदावस्थितद्रव्यप्रदेशाः सदावस्थिता एवान्यथा द्रव्यस्यानवस्थितत्वमसंगात् । पटादिवदनवस्थितद्रव्यपदेशास्तु तंत्वायोजवस्थिवास्तेषामवस्थितत्वे पटादीनामवस्थितत्वापत्तेः। कादाचित्कत्वस्येयत्तयावधारिता
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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