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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः *** अतीन्द्रिय छोटी छोटी गलियों में या सिद्धान्तसम्बन्धी उन्नत सतखने प्रासादोंके ऊपर भी अनुमान स्वरूप गजरथोंपर चढकर चलने का आग्रह किये जाना केवल बालकपन है । व्याप्तिग्रहण, व्याप्तिस्मरण, हेतुदर्शन, पक्षधर्मता ज्ञान, आदि सामग्री स्वरूप मोटे शरीरको धारनेवाला विचारा अनुमान उन सूक्ष्म सिद्धान्तोंमें नहीं प्रवेश कर सकता है। जो कि परम अतीन्द्रिय हैं, वहां श्रुतज्ञान या सब ज्ञानों के गुरुमहाराज केवलज्ञानका ही प्रवेशाधिकार है । समयावलिकादिविभागवद्व्यवहारका ललक्षणफल निमित्तत्वस्य मुख्यकाले धर्मिणि प्रसिद्धत्वात् नाप्याश्रयासिद्धः, सकलकालवादिनां मुख्यकाले विवादाभावात् तदभाववादिनां तु प्रतिक्षेपात् । गगनादिनानैकांतिकोऽयं हेतुरिति चेन्न, तस्यापि विभागवदवगाहनादिकार्योत्पत्तौ विभागवत एव निमित्तत्वोपपत्तेः । 1 मन्दगति द्वारा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेशपर परमाणु के पहुंचने में जितना काळ लगता है, वह समय कहा जाता है | असंख्यात समयका पिण्ड आवाल काल है । संख्यात आवलियों का एक खास होता है। तीन हजार सातसौं तिहत्तर वासों का मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्तका दिन रात होता है । तीनसौ पैंसठ या तीनसौ छियासठ दिनोंका एक सौरवर्ष होता है । पूर्व, पल्य, सागर, कल्प कालोंकी भी गणना कर लेना । यहां हेतुकी निर्दोषता दिखलानी है कि समय, भावलि, नाडी, खास, आदि विभागवाले व्यवहारकालस्वरूप अनेक फलोंका निमित्तकारणपना यह हेतु मुख्यकाल द्रन्य स्वरूप पक्षमें प्रसिद्ध हो रहा है । अतः हम जैनोंका हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं है। हेतु के पक्ष बर्ता मात्र रूपासिद्धि दोषका निराकरण हो जाता है । तथा हमारा उक्त हेतु आश्रया सिद्ध हेत्वाभास भी नहीं है । क्योंकि कालको स्वीकार करनेवाले सम्पूर्ण वादी विद्वानों के यहां मुख्य कालको स्वीकार करनेमें कोई विवाद नहीं उठाया गया है । हां, उस मुख्यकालका अभाव माननेवाले चार्वाक, श्वेताम्बर आदि वादी विद्वानों का तो युक्तियों द्वारा तिरस्कार ( निराकरण ) कर दिय जाता है । ग्रन्थकर्ताके सन्मुख इस समय कालको माननेवाले विद्वान् उपस्थित हैं । जब कालको सर्वथा नहीं माननेवाले वादी कोई आक्षेप करेंगे तब दूसरे अनुमानों द्वारा उसको समझा दिया जायगा ! उतावले नहीं बनो, धीरतापूर्वक ग्रन्थकार के 'अपूर्व प्रमेयोंका गम्भीरबुद्धिसे परिशीलन करो, जो कि सद्बोधका निदान है । यहां कोई आक्षेप करता है कि तुम जैनोंका यह विभागवाले फलोंका निमित्त - पना हेतु तो आकाश, दिशा, धर्मद्रव्य, आदि करके व्यभिचारदोषवान् है । देखो, अखण्ड ग आदिक स्वयं विभागवाले नहीं होते हुये भी विभागवाले अवगाह्य, पूर्व-पश्चिमवर्त्ती, गमनयोग्य, इन विभागवाले फलों के निमित्त कारण हो जाते हैं। एक अखण्ड आकाशमें छोटे छोटे परिमाण वालें अनेक विभक्त पदार्थ ठहर जाते हैं, इत्यादि । प्रन्थकार कहते है कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि विभागवाले ही उन आकाश, दिशा, धर्मद्रव्य आदिकों को भी विभागवाले गृह आदिके अवगाहन
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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