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तत्वार्थ लोक वार्तिके
स्मरण कर परिज्ञात हो रहे परिपाटी चली आ रही है । स्मृति, पाराशर स्मृति आदि
गुंथते हैं। पश्चात् - अनेक आचार्य आम्नाय द्वारा स्मरण होते चले आ रहे उस प्रमेयको शास्त्रों में लिपिबद्ध करते हैं । अतः सर्वज्ञोक्त अर्थका अविच्छिन्न सम्प्रदाय द्वारा शास्त्रोक्त अर्थको स्मृत यानी स्मरण किया जा चुका ऐसे कहने की अजैन विद्वान् भी ईश्वरोक्त या बेदोक्त अर्धीको मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य ग्रन्थोंमें प्रन्थकर्त्ता ऋषियों द्वारा स्मरण किया जाकर लिपिबद्ध कर दिया गया मानते हैं। गुरुपरि - पाठी अनुसार श्री उमास्वामी महाराज करके जो ध्योतिष्क देव स्मरणपूर्वक कहे जा चुके हैं, उन देवों करक गति द्वारा किया गया यह समय आवलिका, दिन, वर्ष, आदि स्वरूप कालविभाग व्यवहारसे नियमित किया गया समझना चाहिये। मुख्यरूपसे यह कालविभाग ज्योतिष्कों करके नहीं किया जा सकता है । अर्थात् — मुख्य कालद्रव्य तो नित्य है । किसी द्वारा किया नहीं जा सुकता है । हां, व्यवहार कालोंकी नाप को ज्योतिष्कों द्वारा साधा जाता है । किन्तु यह अवश्य है कि उस व्यवहार काल के समय आवलि आदि विभागोंते मूल कारण वह मुख्य काल तो विभाग रहित नहीं प्रसिद्ध हो पाता है । तिस प्रकार व्यवहारकालों के अनन्तानन्त भेद, प्रभेद, स्वरूप विभागों के समान मुख्यकाल भी द्रव्यरूपसे असंख्यात विभागों को धार रहा है । क्योंकि यदि हेतुको विभाग रहित माना जायगा तो फल यानी कार्य में कहीं भी विभाग नहीं हो सकता है । विभागवाले कारण ही विभागवाले कार्योंको उत्पन्न कर सकते हैं ।
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विभागवान् मुख्यः कालो विभागवत्फलनिमित्तत्वात् क्षित्यादिवत् ।
ग्रन्थकार अनुमान बनाते हैं कि मुख्यकाल ( पक्ष ) विभागों को धारता है ( साध्य ) । विभागवाले फलोंका निमित्त कारण होनेसे ( हेतु ) पृथिवी, जल, आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात् नाना जातिवालीं पत्थर, मही, लोहा आदि पृथिबियोंसे जैसे चूना, घडा, सांकल, आदि विभक्त कार्य बनते हैं, अथवा मेवजल, क्षारकूपजल, नदीजल, समुद्रजल, भिन्नदेशीय जल, आदि से किसान या माली जैसे भिन्न भिन्न प्रकारके वनस्पति आदि कार्यों की उत्पत्ति कराते हैं, उसी प्रकार विभागयुक्त कालद्रव्य ही विभागवाले व्यवहारकालों को फलस्वरूप उपजा सकेगा। हां, यह बात दूसरी है अनन्तानन्त जीवोंसे अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं और पुद्गलद्रव्योंसे भी अनन्तगुणा व्यवहारकाल है । किन्तु निश्चयकालद्रव्य तो लोकप्रेदशप्रमाण असंख्याते ही हैं । फिर भी मूलमें असंख्याते द्रव्यों करके बहिरंग उपाधियों द्वारा कार्यों के अनन्तानन्त भेद किये जा सकते हैं। मूलमें विभागरहित हो रहे कोरे एक द्रव्यसे असंख्याते या अनन्ते भेद नहीं हो सकते हैं। यहां इस समय ग्रन्थकारको केवल विभागवान् कारणले ही विभागवान् कार्यो की सिद्धि कराना अभीष्ट है । वैशेषिक या नैयायिक कालद्रव्यको एक ही मानते हैं । उनके प्रति इस अनुमानका प्रयोग है । जो विद्वान् पक्षपात रहित होकर सूक्ष्म तत्वों के जानने में अवगाह करेगा, उसके प्रति लघु उपाय करके असंख्य मूल करिणोंसे अनन्तस्वभावें द्वारा अनन्तानन्त फलों की सिद्धि झटिति कराई जा सकती है। सूक्ष्म परम
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