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________________ तालाचाबकानाम: उस तुम्हारे ज्योतिष शास्त्रके विषय होरहे नित्यपन, चलपन, आदि एकान्तरूपोंके बाधक प्रमाणीक असंभवनेका अच्छा निर्णय नहीं होचुका है। क्योंकि उन एकान्तस्वरूपकी प्रत्यक्ष और अनुमान यादि प्रमाणोंसे बाधा होजाती है । तिस कारण स्याद्वादियों के यहां ही वह ज्योतिषशास्त्र स्मुचित माना गया है। कारण कि अनेकान्त होनेपर ही उस ज्योतिषशासकी प्रतिष्ठा है । जैनोंके अनेकान्त यात्मक उस ज्योतिषशास्त्र में सभी प्रकारोंसे बाधक प्रमाणोंके विशेषतया रहितपनका निश्चय होरहा है। यहांतक विद्यानन्द स्वामीने गम्भीरयुक्तियों और आम्नायप्राप्त शास्त्रों द्वारा ज्योतिषविषयका निर्णय करा दिया है । मुझ स्तोकबुद्धि भाषाकारने स्वकीय स्वल्प क्षयोपशम अनुसार आचार्य महाराज के शब्दोंका तात्पर्य लिखा है। किन्तु मुझसे यथायोग्य विवरण नहीं होसका है। विशेषज्ञ विद्वान इस विषयपर अच्छी छानबीन कर जैनसिद्धान्तकी प्रभावना करें, यह मेरी समीचीन भावना है। जिनो, लोकानुयोग, अतीव गम्भीर महोदधि है। उसमें जितना भी गहरा प्रविष्ट होकर बन्वेषण किया जायगी उतनी ही अट्ट प्रमेयरत्नोंकी प्राप्ति होती जावेगी। इत्यलं प्रतिभाशालिभ्यो महोदयेभ्यो नीरक्षीरविवेचनहंसायमानेभ्यः ॥ अब इस समय श्री उमास्वामी महाराज मनुष्य लोकस्थ ज्योतिष्फोंकी गतिक सम्बन्ध करने जगभरमें प्रवर्त रहे व्यवहार कालकी प्रतिपत्ति कराने के लिये अग्रिमसूत्रको कहते हैं। तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ उन गतिमान् ज्योतिषियों करके किया जाचुका समय, आवलि, उच्छवास, मुहर्त आदि व्यय हार काका विभाग होरहा है । किकृत इत्याह । कोई जिज्ञासु पूछता है कि उन ज्योतिषी देवोंकरके क्या किया गया है। ऐसौं जिस पर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिमवार्तिकको कहते हैं। ये ज्योतिष्काः स्मृता देवास्तत्कृती व्यवहारतः। कृतः कालविभागोयं समयादिर्न मुख्यतः ॥१॥ तद्विभागान्तथा मुख्यो नाविभागः प्रसिद्धयति । विभागरहिते हे तो विभागो न फले कचित् ॥२॥ त्रिलोक त्रिकालदर्शी तीर्थंकर श्रीजिनेन्द्रनाथ भगवान् समवसरण में विराजकर मार सम्वोंका उपदेश देते हैं। द्वादशांग देता गणवरदेव उस अर्थका स्मरण रख कर
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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