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________________ सूर्य भादि विमानका राहुके विमान करके उपराग यानी धुंधली कान्तिवाला या कान्तिरहित होजाना असम्भव करने योग्य नहीं है। क्योंकि स्वच्छ स्फटिकका जैसे लाल जपापुष्पसे उपराग होजाता है, उसी प्रकार अंजन समान काले उस राहु विमान करके सूर्यादिका उपराग होना सम्भव नाता है। सूर्य आदि विमानोंका स्वच्छपना तो फिर मणिमय होनेके कारण व्यवस्थित है । तपाये गये मल पुवर्णके समान प्रभाको धारनेवाले और लोहिताक्ष मणिकी प्रचुरताके धारी अनेक सूर्य विमान हैं। और निर्मल मृणाल ( कमलकी डंडी ) समान वर्णवाले और मध्यमें कतिपय काले मणियुक्त चिन्होंको गोदमें धार रहे अनेक चन्द्रविमान हैं । एवं अंजनके समान प्रभाके धारी काली अरिष्टमणिके प्राचुर्यको लिये हुये असंख्याते राहुविमान हैं । इस प्रकार सर्वज्ञोक परम आगमका सद्भाव है। भावार्थ—सूर्यका विमान तपाये सुवर्णके समान कुछ रक्तिमा लिये हये चमकदार हैं । इससे बारह हजार उष्ण किरणें नैमित्तिक बनती रहती हैं । सूर्य, चन्द्रमा, शुक्र, आदि ज्योतिक विमान मूलमें उष्ण नहीं हैं । केवल सूर्य, मंगल, अग्निज्वाल, अगस्त्य मादि विमानोंकी प्रभायें उण हैं | चन्द्रमाकी तो प्रभा भी शीतल है । चन्द्र विमान कुछ हरितपनको लिये हुये चमकदार हैं । चन्द्रमाकी बारह हजार शीतल किरणें हैं । चन्द्र विमानोंके बीचमें कई काले नीले मणिमय चिन्ह हैं तथा राहुका विमान अंजनसमान कुछ कालिमाको लिये हुये है । जैनसिद्धान्त पह है कि सूर्य चन्द्र विमानोंके अधोभागमें कुछ अन्तराल देकर कदाचित् राहुविमान आ जाते हैं। अतः उनकी प्रभा नीचेकी ओर नहीं फैल पाती है। हां, अपने पूर्ण स्वरूपमें वे सर्वदा अक्षुण्ण राते हैं । यथायोग्य नीचेके पुद्गल स्कन्धोंपर चाकचक्य नहीं पढ़ पाता है, जैसे कि डिबियामें धरे ये रतकी कान्ति चारों ओर नहीं फेल पाती है । अथवा राहुके पूर्णरीत्या या कुछ भाग नीचे आ जानेपर परिस्थिति अनुसार स्वभावसे ही वैसी अत्यल्प कान्ति हो जाती है । स्वच्छ पदार्थके उन्मुख दृष्टा भोर मयके अन्तरालमें पडे हुये काले नीले या धुंधले पदार्थ आ रही नैमित्तिक कान्तिको रोक देते हैं। ये सब बातें प्रत्यक्षसिद्ध हैं । यहां कुतर्कोकी गति नहीं है । प्रत्यक्षप्रमाण और परमागम प्रमाणसे बाधित हो रहे कुसिद्धान्तोंका परीक्षकोंके हृदयमें आदर नहीं है। शिरोमात्रं राहुः सर्पाकारो वेति प्रवादस्य मिथ्यात्वात् तेन ग्रहोपरागानुपपत्तेः बराहपिहरादिभिरप्पभिधानात् । राहु नामक एक विमान है जो कि कृष्ण या शुक्लपक्षमें चन्द्रमाके नीचे भ्रमण कर रहा दीखता रहता है। इस विमानके ऊपर अनेक सुन्दर प्रासाद बने हुये हैं। उनमें अपने परिवारसहित एक राहु नामका सुन्दर, दिव्य शरीरधारी, अधिष्ठाता निवास करता है । जो कोई पौराणिक पण्डित ऐसा करो कि उपरका केवल सिरका भाग राह है और नीचेका धड केतु है । अर्थात्पुराणचर्चा है कि विणु जब अमृतको बांट रहे थे उस समय राहु नामका एक राक्षस देवताका वेष धारण कर देवोंकी पंक्तिमें अ वैचा या, मोहिनी स्पधारी विष्णु भगवान्ने उसको अपत परोप
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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