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________________ Aawana .... यदि पूर्वपक्षी विद्वान यों कहैं कि वे चन्द्र आदिक उस भूगोलसे अत्यधिक दूर देशमें हैं। अतः देशका व्यवधान होनेसे कदाचित् चन्द्रादिके उपर भूगोलका उपराग नहीं हो पाता ही है। हां, अतिनिकटवर्ती देशमें सम्बन्ध हो जानेके अवसरपर ही उस उपरागका होना माना गया है। यों कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि क्या इस समय सूर्य आदिके चारों ओर भ्रमणका भिन्न भित्र मार्ग स्वीकार किया जाता है ! भर्थात्-चन्द्रमा या भूमिका भिन्न भिन मार्गोंपर भ्रमण होना स्वीकार करनेपर ही दूर देशमें पहुंच जाना या निकट देशमें आकर चमकीले पदार्थोपर उपराग डाळ देना बन सकता है । यदि तुम परपक्षी विद्वान् यों कहो कि क्या आश्चर्य है । हम अत्यर्थ रूपसे भ्रमणके मार्गका भेद बडी प्रसन्नतासे स्वीकार करते हैं। यों कहनेपर तो हम जैन आक्षेप करेंगे कि बताओ अनेक राशिओंमें सूर्य आदिका भ्रमण कैसे होगा ! जब कि प्रत्येक राशिपर भ्रमणका मार्ग नियत कर दिया गया है । तब तो तुम्हारे विचार अनुसार अतिशय निकटवर्ती मार्गपर भ्रमण करनेपर ही वह ग्रहण पडना घटित हो सकता है । अन्य प्रकारोंसे माननेपर सर्वदा ही ग्रहण पडते रहनेके प्रसंगका कठिनतासे भी निवारण नहीं किया जा सकता है। प्रतिराशि प्रतिदिनं च तन्मार्गस्यापतिनियमात् समरात्रदिवसवृद्धिहान्यादिनियमाभावः कुतो विनिवार्येत ? भूगोलशक्तरिति चेत्, उक्तमत्र समायामपि भूमौ तत. एव समरात्रादि: नियमोस्त्विति । ततो न भूछायया चंद्रग्रहणं चंद्रछायया वा सूर्यग्रहणं विचारसहं। . ___एक बात यह भी तुमसे पूंछना है कि प्रत्येक राशि या प्रत्येक दिन जब उन भूगोल, चन्द्रमा, आदिके मार्गका कोई प्रतिनियम नहीं हैं, तो ऐसी दशा हो जानेसे समान दिन रातके होने या दिनकी वृद्धि, हानि आदिके होने नियमका अभाव हो जाना भला किससे निवारित किया जा सकता है। अर्थात्-चाहे कभी दिन, रात, समान हो जायंगे । छह छह महीने पीछे समान दिन रात होनेका नियम नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार चाहे जब दिन रात घट, बढ, जायंगे। कोई नियत व्यवस्था नहीं रह सकेगी । यदि तुम यों कहो कि भूगोलकी शक्तिसे समान दिन रात आदिकी नियत व्यवस्था हो जायगी, प्रन्थकार कहते हैं कि यों कहनेपर तो हम पहिले ही कह चुके हैं कि समतल भूमिमें भी तिस ही कारणसे यानी भूमिकी शक्ति और सूर्य आदिकी गतिविशेषसे ही समान रांत, दिन, आदिका नियम हो जाओ । व्यर्थमें अलीक सिद्धान्तोंके गढनेसे कोई लाभ नहीं है । तिस कारण. पृथिवीकी छायासे चन्द्रमाका ग्रहण मानना और चन्द्रमाकी छायासे सूर्यका ग्रहण स्वीकार करना परीक्षा आत्मक विचारों को सहन नहीं कर सकता है। सिद्धान्तशिरोमणिके कर्ता भास्कराचार्य या आर्यभट्ट आदि विद्वानोंका मन्तब्य समुचित नहीं है। ... राहुविमानोपरागोत्र चंद्रादिग्रहणव्यवहार इति युक्तमुत्पश्यामः सकसवाधकाविकमत्वात् । .... , हां नीचे चल रहे राहुके विमान द्वारा उपराग होना यहां चन्द्र आदिके प्रहणका व्यवहार करानेवाला है । इस सिद्धान्तको हम युक्तिपूर्ण देख रहे हैं। क्योंकि यह मन्तव्य सम्पूर्ण बाधक प्रमा 18
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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