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तत्वार्यश्लोकवातिक
मुमादेः समंततः स्थितस्य स्फटिकादेस्तदुपरागवत् । न हि चंद्रादेः कस्यांचिदपि दिशि कदाचिदव्यवस्थिति म भूगोलस्य येन सर्वदा तदुपरागो न भवेत् । - -
भूभ्रमणवादी स्वपक्षका अवधारण करते हैं कि भूमि आदिकी आवरणस्वरूप हो रही छाया करके सूर्य आदिका ग्रहण पडना उस ग्रहणके वेत्ता विद्वानों करके नहीं स्वीकार किया जाता है। जिससे कि यह उपर्युक्त दोष लग बैठे, तो ग्रहणवेत्ता विद्वान् क्या स्वीकार करते हैं ! इसका उत्तर यह है कि उपरागस्वरूप छाया करके ग्रहण पडना माना जाता है। चन्द्र, सूर्य, आदिमें भूमि आदिके उपराग पड जानेको ही चन्द्र आदिका ग्रहण पड जाना, इस व्यवहार के विषयपन करके स्वीकार किया गया है। जैसे कि स्फटिक, मोटे काच, आदिमें जपाका पुष्प, गुलाबका फल, डंक आदिका उपराग पड जाता है । अतः उन चन्द्र आदिमें भूमि आदिके उपरागसे उस ग्रहण पडनेको उपपत्ति हो जाती है । भावार्थ-दीप्यमान सूर्य, चन्द्रमाओंके ऊपर धुंधली पृथिवी आदिकी छाया करके ग्रहण होना हम नहीं मानते हैं । किन्तु धुंधले पदार्थकी चमकीले पदार्थपर आभा पड जाने मात्रसे ग्रहण हो जाता है। स्फटिकमें जपाकुसुमकी छाया नहीं पडती है, केवल जपा कुसुमकी आभासे स्फटिक लाल दीखने लग जाता है । जैसे घाममें लाल या हरा वस्त्र टांग देनेसे कुछ यहां वहां लाल या हरी कान्ति पड जाती है । हां, दर्पण या खड्गमें छाया पडती है । छाया और उपरागमें यही अन्तर है । यहांतक कोई भूभ्रमणवादी कह रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि वह भी सत्य बोलनेवाला नहीं है। क्योंकि तिस प्रकार होनेपर सदा ही ग्रहण के व्यवहार होनेका प्रसंग आवेगा । जब कि भूगोलसे सम्पूर्ण दिशाओंमें चन्द्रमा आदि स्थित हो रहे हैं ऐसी दशामें चन्द्र आदिमें उस भूगोलका उपराग पडना सदा बन जायगा जैसे कि जपाकुसुम, गेंदाका फूल, प्रदीप, आदिके सब ओर स्थित हो रहे स्फटिक आदिपर उन जपाकुसुम आदिकी कान्ति पडना स्वरूप उपराग बन बैठता है । चन्द्र आदिकी किसी भी एक दिशामें कभी भूगोलकी भला व्यवस्था नहीं होय यह तो कथमपि तुम नहीं कह सकते हो जिससे कि सदा उस भूगोलका उपराग चन्द्र आदिके ऊपर नहीं हो सके। अर्थात्-आधुनिक भूगोलवादी भी सूर्यकी प्रदक्षिणा दे रही पृथिवीको मानते हैं । और चन्द्रमाको पृथिवीकी परिक्रमा दे रहा स्वीकार करते हैं । ऐसी दशामें चन्द्रमा या सूर्यके ऊपर भूमि का उपराग पडना सुलभ कार्य है । चमकीले पदार्थपर यहां वहांके पदार्थकी आभा अतिशीघ्र पड जाती है।
तस्य ततोतिविप्रकर्षात् कदाचिन भवत्येव प्रत्यासत्यतिदेशकाल एव सदुपगमादिति चेत् , किमिदानी सूर्यादेर्धमणमार्गभेदोभ्युपगम्यते ? बाढमभ्युपगम्यत इति चेत् , कथं नानाराशिषु मूर्यादिग्रहणं प्रतिराशि मार्गस्य नियमात् पत्यासबतममार्गभ्रमण एव तद्घटनाद अन्यथा सर्वदा ग्रहणप्रसंगस्य दुर्निधारत्वात् ।