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________________ __ तत्वाचिन्तामणिः मध्यं दिने स्वस्योपरि तत्प्रतीतेश्च क्षितिगोलस्याधःस्थिते भानौ चंद्रे च तच्छायया ग्रहणमिति चेन, रात्राविव तददर्शनप्रसंगात् । दूसरी बात यह कहनी है कि भूगोल, चन्द्रगोल, आदिके ऊपर जब सूर्य स्थित होजावेगा तो ऐसी दशामें उनकी छाया सूर्यपर किस प्रकार प्राप्त होजावेगी ! क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध होजावेगा । उस समय तो मध्यान्हके समान छायाका विरह प्रसिद्ध होरहा है । यदि भूभ्रमणवादी पण्डित यहां यों उत्तर कहे कि उन भूगोल आदिसे सूर्यके तिरछा स्थित होनेपर सूर्यमें उनकी छाया प्राप्त होजाती है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि भूगोलसे पूर्व दिशाओंमें सूर्यके स्थित होजानेपर पश्चिमदिशाके अभिमुख छाया होना बनेगा। अतः उस सूर्यपर पृथिवी या चन्द्रमाकी छाया प्राप्त होनेका योग नहीं बन पावेगा। सर्वदा तिरछे ही सूर्यग्रहण होनेके भले प्रकार ज्ञान होनेका प्रसंग आवेगा, किन्तु दिनके मध्यभागमें आकाशके ऊपर उस सूर्यग्रहणकी प्रतीति होरही है। फिर भी कोई यों कहे कि भूगोलके नीचे सूर्य और चन्द्रमाके स्थित होजानेपर उनकी छाया करके सूर्यग्रहण पड जायेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि रातमें जैसे सूर्यग्रहणका दर्शन नहीं होता है, उसीके समान दिनमें भी उस सूर्यग्रहणके नहीं दीखनेका प्रसंग आवेगा। अर्थात्-राहु अरिद विमाणा किंचूणं जोयणं अधोगता छम्मासे पवंते चंदरवी छादयंति कमे" इस त्रिलोकसारकी गाथा अनुसार नीचे, नीचे चल रहे राहु और अरिष्ट विमानों करके सूर्य और चन्द्रमाका ग्रहण पडना मानना चाहिये । यों छाया पड जानेसे ग्रहण नहीं होजाते हैं। चन्द्रविमानके चार प्रमाणांगुल नीचे राहुका विमान और सूर्य विमानके नीचे चार अंगुल नीचे अरिष्टका विमान भ्रमण करता रहता है। अन्य दिनोंमें ये विमान अगल बगल रहते हुये घूमते हैं । अमावस्या या पूर्णिमाके दिन कदाचित् नीचे आजानेपर ग्रहण दिवस मान लिया जाता है। यों पूर्णिमाके अतिरिक्त चन्द्रमाके नीचे सदा ही राहुका विमान तारतम्य अनुसार भ्रमण करता रहता है । जोकि प्रत्यक्षसिद्ध है । इस विषयके तलस्पर्शी विद्वान् भूगोल या सूर्यग्रहण आदिका अन्य समीचीन युक्तियों द्वारा अच्छा विवेचन कर लेवें।“ नहि सर्वः सर्वविद् "। मेरे निकट इस विषय के साधन अत्यल्प हैं। श्री विद्यानन्द स्वामीको युक्तियां अकाट्य हैं । हां, मेरे लेखमें त्रुटियां होना सम्भव है। " तद्धि जानन्ति तद्विदः ” उस विषयको उसके परिपूर्ण अन्तःप्रवेशी विद्वान् जान सकते हैं । मनीषिणः शोधयन्तु । ननु च न तयावरणरूपया भूम्यादिछायया ग्रहणमुपगम्यते तद्विद्भिर्यतोऽयं दोषः। किं तर्हि ? उपरागरूपया चंद्रादौ भूम्याद्युपरागस्य चंद्रादिग्रहणव्यवहारविषयतयोपगमात् । स्फटिकादौ जपाकुसुमाद्युपरागवत् तत्र तदुपपत्तेरिति कश्चित्, सोपि न सत्यवाक् तथा सति सर्वदा ग्रहणव्यवहारमसंगात् भूगोलात्सर्वदिक्ष स्थितस्य चंद्रादेस्तदुपरामोपपत्तेः । जपाक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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