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तत्वायचिन्तामणिः
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मनुष्योंके शरीरउच्चता, अनुभव, आयु, सुख, आदि करके धृद्धि और न्हास होरहे सूत्रकार द्वारा समझाये गये हैं । अन्य पुद्गलोंकरके भूमिके वृद्धि और हास सूत्रमें नहीं कहे गये हैं। प्रन्यकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये । क्योंकि गौण होरहे शब्दोंका सूत्रकारने प्रयोग नहीं किया है । अतः मुख्य अर्थ घटित हो जाता है । अन्य प्रकारोंसे यानी तत्में स्थित होनेसे तत् शब्दपनेकी सिद्धि या “ भरतऐरावतयोः " को सप्तमी विभक्तिका रूप मान लेना इन ढंगोंसे मुख्य शब्दके अर्थका अतिक्रमण करनेमें कोई प्रयोजन नहीं दीख रहा है । " मंचाः क्रोषन्ति " " गंगायां घोषः " आदि स्थलोंपर तात्पर्यकी अनुपपत्ति होनेसे मुख्य अर्थका उल्लंघन कर गौण अर्थका आदर कर लिया जाय । किन्तु यहां वृद्धि और हास इन कृदन्त क्रियाओंका योग हो जानेसे “ भरतऐरावतयोः " इस षष्ठयन्तपदका उनमें आधेय हो रहे मनुष्य, पशु, आदिक यह गौण अर्थ नहीं किया जा सकता है। विचारशाली दार्शनिक सूत्रकार आलंकारिक कवियोंकी छटामें निमग्न नहीं हैं । अतः भरत ऐरावत शब्दका मुख्य अर्थ पकडना चाहिये । तिस कारण भरत भौर ऐरावत दोनों क्षेत्रोंकी वृद्धि और हानि हो रहीं मुख्यरूपसे समझ लेनी चाहिये । हां, गौणरूपसे तो उन दोनों क्षेत्रोंमें ठहर रहे मनुष्यों के अनुभव आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे समझ लो, यों तुम्हारे यहां सूत्रकारका तिस प्रकार वचन सफलताको प्राप्त हो जाओ और क्षेत्रकी वृद्धि या हानि मान लेने पर प्रत्यक्षसिद्ध या अनुमान सिद्ध प्रतीतियोंका भी उल्लंघन नहीं किया जा चुका है । भावार्थ-समयके अनुसार अन्य क्षेत्रोंमें नहीं केवल भरत ऐरावतोंमें ही भूमि ऊंची, नीची, घटती, बढती हो जाती है। तदनुसार दुपहरके समय छायाका घटना बढना या कचित् सूर्यका देर या शीघ्रतासे उदय, अस्त, होना, घटित हो जाता है। तभी तो अगले " ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः " इस सूत्रमें पड़ा हुआ “ भूमयः " शब्द व्यर्थ सम्भव होकर ज्ञापन करता है कि भरत और ऐरावत क्षेत्रकी भूमियां अवस्थित नहीं हैं । ऊंची, नीची, घटती, बढती हो जाती हैं।
सूर्यस्य ग्रहोपरागोपि न भूगोलछायया युज्यते तन्मते भूगोलस्याल्पत्वात् सूर्यगोलस्य तच्चतुर्गुणत्वात् तया सर्वग्रासग्रहणविरोधात् ।
- सूर्यका ग्रहों के द्वारा उपराग होना ( सूर्यग्रहण ) भी भूगोलकी छाया करके होरहा मानना उचित नहीं है । क्योंकि उन भूभ्रमण वादियोंके मतमें भूगोलका परिमाण अल्प माना गया है। सूर्य गोल उससे चौगुना स्वीकार किया है, तिस प्रकार होनेपर सर्वग्रासरूपग्रहण होजानेका विरोध पडेगा। अर्थात्-भूगोलवादी प्राचीन पण्डितोंने पृथिवीसे सूर्यको चौगुना स्वीकार किया है। यदि पृथिवीकी छायासे सूर्यग्रहण माना जावेगा तो भरपूर सूर्यका ढक जाना ऐसा खग्रास ग्रहण नहीं पड सकेगा ।क्योंकि छोटा पदार्थ बडे पदार्थको पूरा नहीं ढक पाता है। आधुनिक कई युरोपीय विद्वान सूर्यको भूमिसे एक सौ आठ गुना या तेरह लाख गुना अथवा पन्द्रह लाख गुना स्वीकार करते हैं। आर्यभट्ट,