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तलाय होकपातिक
मनुष्प भादिकी छाया लम्बी पडती है और मध्यान्हतक सूर्यके निकट आ जानेपर छाया छोटी छोटी होती जाती है । पुनः मध्यान्हसे सायंकालतक सूर्यके अधिक अधिक दूर होते जानेपर छाया बढती चली जाती है। दैदीप्यमान पदार्थोके दूर निकट जाने आ जानेपर छाया बढती, घटती, हो रही प्रसिद्ध है। कवि कहता है कि "आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लवी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् , दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव मैत्री खलस नानाम् " । यदि यहां कोई यो कटाक्ष करे कि मध्यान्हके समय किसी देशमें छायाका अभाव होनेपर भी दूसरे देशोंके दुपहर के समय उस छायाका दर्शन हो रहा ( हेतु ) भूमिके गोल आकारको साध देवेगा । क्योंकि समत भूमिमें वह कहीं छायाका न होना और कहीं होना नहीं बन सकता है । भावार्थ-सूर्यकी निची ओर ठीक सीधी रेखा पर खडे हुये मनुष्य की छाया नहीं पडती है । हां, गोल पृथिवीके कुछ इधर उधर बगलमें खडे हो जानेसे तिरछे होगये मनुष्य की दोपहरको छाया अवश्य पड जायगी। प्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि तब भी भूमिके केवल नीचेपन या ऊंचेपन विशेषोंकी ही उस हेतुसे ज्ञप्ति हो सकेगी और वह भूमिका नीचा ऊंचापन भरत ऐरावत क्षेत्रों में कालवश हो रहा देखा जा चुका है। स्वयं पूज्यचरण सूत्रकारका इस प्रकार वचन है कि भरत ऐरावत क्षेत्रोंके वृद्धि और हास छह समयवाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिगी कालो करके हो जाते हैं। अर्थात्-भरत और ऐरावतमें आकाशकी चौडाई न्यारी न्यारी एक लाखके एकसौ नब्बै भाग यानी पांचसौ छब्बीस सही छह वटे उनईस योजन ती ही रहती है। किन्तु अवगाहन शक्तिके अनुसार इतने ही आकाशमें भूमि बहुत घट, बढ, जाती है। न्यूनले न्यून पांचौ छब्बीस छह बटे उन्नीस योजन भूमि अवश्य रहेगी। बढनेपर इससे कई गुनी अधिक हो सकती है । इसी प्रकार अनेक स्थल कहीं वीसों कोस ऊंचे, नीचे, टेढे, तिरछे, कौनियाथे, हो रहे हो जाते हैं । अतः भ्रमण करता तुआ सर्य जब दुपहरके समय ऊपर आ जाता है, तब सूर्यसे सीधी रेखापर समतल भूमिमें खडे हुये मनुष्योंकी छाया किंचित् भी इधर उधर नहीं पडेगी। किन्तु नीचे, ऊंचे, तिरछे, प्रदेशोंपर खडे हुये मनुष्योंकी छाया इधर उधर पड जायगी। क्योंकि सीधी रेखाका मध्यम ठीक नहीं पड़ा हुआ है। भले ही लकडीको टेडी या सूधी खडी कर उसकी छायाको देखलो ।
___ तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरादिभि द्वहासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मंतव्यं, गौणशब्दाप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यया मुख्य शब्दार्थातिक्रमे प्रयोजनाभावात् । तेन भरतैरावतयोः क्षेत्रयोवृद्धि हासौ मुख्यतः प्रतिपतव्यौ, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति सयावचनं सफलतामस्तु ते प्रतीतिवानुल्लंपिता स्यात् ।
थोडे आकाशमें बडी अवगाहनावाली वस्तुके समाजानेमें आश्चर्य प्रगट करते हुये कोई विद्वान् यो मान बैठे हैं कि भरत, ऐरावत, क्षेत्रों की वृद्धि हानि नहीं होती है, किन्तु उनमें रहनेवाले