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________________ तत्त्वायचिन्तामणिः ५७१ मध्ये त्वनेकविधा दिनस्य वृद्धिहौनिश्चानेकमण्डलभेदात् सूर्यगतिभेदादेव यथागमं मंडलं यथागणनं च प्रत्येतव्या तथा दोषावृद्धिानिश्च युज्यते । दिनकी सबसे बडी वृद्धि अठारह मुहूर्त और सबसे प्रकर्ष हानि बारह मुहूर्तकी सिद्ध कर दी गयी है । मध्यमें होनेवाली अनेक प्रकार दिनकी वृद्धियां और हानियां तो अनेक मण्डलोंके भेदसे सूर्यकी गतिके भेद अनुसार ही हो जाती हैं । आगम अनुकूल और मण्डलपर गति अनुसार तथा परिधि गणनाका अतिक्रम नहीं कर समझ लेनी चाहिये । तिस ही प्रकार रात्रिकी वृद्धि और हानियां भी समुचित हो रहीं युक्त बन जाती हैं। भावार्थ-" सूदो दिणरत्ती अट्ठारस बारसा मुहुत्ताणं अब्भन्तरम्हि एदं विवरीयं बाहिरम्हि हवे " " कक्कडमयेर सव्वब्भन्तर बाहिर पहडिओ होदि, मुहभूमीण विसेसे बीथीणंतरहिदे पचयं ” ( त्रिलोकसार )। यों प्रति दिन दिन और रातकी हानि या वृद्धिका चय दो बटे इकसठि मुहूर्त समझ लेना चाहिये । ___ तदेतेन दिनरात्रिवृद्धिहानिदर्शनाद्भवो गोलाकारतानुमानमपास्तं, तस्यान्यथानुपपत्तिवैकल्यादन्यथैव तदुपपत्तेः। तिस कारण इस कथन करके भूगोलबादियों के इस अनुमानका भी खण्डन कर दिया गया समझो कि पृथिवीका आकार गोल है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि दिन या रातकी वृद्धि और हानियां देखी जा रही हैं ( हेतु ) । बात यह है कि उस हेतुकी अपने साध्य के साथ अविनाभाव बने रहनेकी विकलता है । साध्यके विना ही उस हेतुकी उपपत्ति हो जाती है । भावार्थ-पृथ्वीके वृत्त आकारके साथ दिन या रातकी हानि, वृद्धियों का नियम नहीं है । सूर्य की अनेक मण्डलोंपर हो रही गतिके अनुसार वह दिन और रातका घटना, बढना दूसरे प्रकारोंसे ही बन जाता है। तथा छाया महती दूरे सूर्यस्य गतिमनुमापयति अंतिकेऽतिस्वल्पा न पुनर्भूमेोलकाकारतामिति छायावृद्धिहानिदर्शनमपि सूर्यगतिभेदनिमित्तकमेव । मध्यान्हे कचिच्छायाविरहेपि परत्र तद्दर्शनं भूमेर्गोलाकारतां गमयति समभूमौ तदनुपपत्तेरिति चेन, तदापि भूमिनिम्नत्वोबतत्वविशेषमात्रस्यैव गतेः तस्य च भरतैरावतयोष्टत्वात् “ भरतैरावतेयाईद्धिन्हासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां इति वचनात् ।। ___ उक्त वार्तिकोंमें इसके आगे छाया पडी हुई है । इसका विवरण यों है कि तिसी प्रकार सूर्यके दूर होनेपर बडी लम्बी पड रही छाया और सूर्य के निकट होनेपर अति अल्प हो रही छाया भी सूर्यकी गतिका ही अनुमान कराती है। किन्तु फिर पृथिवीके गोल आकारसहितपनकी अनुमिलि नहीं कराती है । इस प्रकार छायाकी वृद्धि जौर छायाकी हानिका दीखना भी सूर्यकी भिन्न भिन्न गतिओंको निमित्त पाकर ही दुआ कहना चाहिये । अतः प्रातःकाल सूर्यके दूर रहनेपर वृक्ष, गृह,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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