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________________ ५६२ तत्वार्थोकवार्तिक अनुसार या कुछ मीचा ऊंचा प्रदेश होनेसे छांह घट बढ जाती है। कई निमित्तं कारणोंसे अनेक न जाने क्या क्या नैमित्तिक कार्य बन जाते हैं। कठिन लोहे ( ईस्पात) का छुरा गरम शाणसे पैना हो जाता है। चमडा या कपडासे भी कुछ पैना कर लिया जाता है। ऊनी कपडेपरसे मैल या तेलकी चीकट अथवा डामर तार कोल को मट्टीका तेल या पैट्रोल धो डालता है। जैसे कि आत्मा पर चुपटे हुये कर्मकलंकको तपस्या करके हटा दिया जाता है। 1 तथा दर्पणसमतळायामपि भूमौ न सर्वेषामुपरिस्थिते सूर्ये छायाविरहस्तस्यास्तदभेदनिमित्तशक्तिविशेषासद्भावात् । तथा विषुमति समरात्रमपि तुल्यमध्यदिने वा भूमिशक्तिविशेषादस्तु । 1 तिसी प्रकार दर्पणके समान समतल भी भूमि में सम्पूर्णके ऊपर सूर्य के स्थित हो जानेपर छायाका अभाव नहीं हो सकता है । क्योंकि उस छायाका निमित्त कारण उस पृथिवी की अभिन्न हो रही विशेष निमित्त शक्तियों का असद्भाव है । सद्भाव पाठ योग्य है । भावार्थ जल, कइरवाला जल, खड्ग, रञ्जित पात्र ( कलईदार गिलास ) आदिमें जो नाना प्रकार प्रतिबिम्ब पडते हैं । उसका निमित्त कारण उन पदार्थोंकी आत्मभूत हो रहीं विभिन्न शक्तियां हैं । उसी प्रकार मध्याह में जब सिरके ऊपर सूर्य आ जाता है तब भी भूमिकी विभिन्न शक्तियों अनुसार थोडीसी छाया पड जाती है। सूर्यकी ठीक सीधी अधोरेखापर आजानेका किसी मनुष्य को कदाचित् ही अवसर पडता है। सीधी अधोरेखा थोडा भी इधर उधर हो जानेपर छाया पड जायगी । तथा विषुमान् अवस्थामें दिन के समान रात का होना अथवा तुल्य मध्यदिनका होना भी भूमिकी शक्तिविशेषसे हो जाओ । अर्थात्–सिद्धान्तशिरोमणि के अनुसार लंका और उज्जैनके ऊपर जाती हुई कुरुक्षेत्र आदि देशोंके छू रही दोनों ध्रुत्रोंके ऊपरकी रेखाको भूमध्यरेखा या विषुमत् रेखा माना गया है । विष्ठमद् वृत्त अवस्थामें दिन और रात समान हो जाते हैं । ये सब बातें भूमिकी शक्ति और सूर्यके भ्रमण विशेषोंसे साध्य हैं । 1 प्राच्यामुदयः प्रतीच्यामस्तमयः सूर्यस्य तत एव घटते । कार्यविशेषदर्शनाद्रव्यस्य शक्तिविशेषानुमानस्याविरोधात् अन्यथा दृष्टहानेरदृष्टकल्पनायाश्चावश्यंभावित्वात् । सा च पापीयसी महामोहविजृंभितमावेदयति । तिस ही कारणसे यानी भूमिकी विशेषशक्तिओसे पूर्व दिशामें सूर्यका उदय और पश्चिम दिशामें सूर्यका अस्त होना घटित हो जाता है। क्योंकि विशेषकार्यों के देखनेसे द्रव्यकी विशेष शक्तिओं के 'अनुमान होजानेका कोई विरोध नहीं है । अन्य प्रकारोंसे यदि सूर्यके उदय, अस्त, होने माने जायेंगे तो देखे जारहे की हानि और अदृष्टपदार्थ की कल्पना अवश्य होजावेगी । जो कि वह दृष्टानि और अष्टकल्पना अत्यधिक पापिनी होरही भूगोल भ्रमणवादियोंके महान् मोहकी चेष्टाको जता रही है। I
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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