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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अर्थात्-ऋतुओंका परिवर्तन, वृष्टि, आंधी, जाडा, गरमी आदि पडना, नियत वनस्पतियोंकी उत्पत्ति, विभिन्न समयोंमें अनेक वृक्षोंका फलना, फलना, आदि कहीं सोना, कचित् केसर, कही रत्न, आदि का उत्पन्न होना कहीं उष्णकालमें भी शीत पडना, हिम ( बरफ ) गिरना, कचित् शीत कालमें भी. उष्णता होना इत्यादिक सम्पूर्ण कार्य जैसे भूमिकी शक्तिसे होजाते हैं, उसी प्रकार पर्वतमय भूमिके उरली ओर आजानेपर सूर्यका उदय और परली ओर जानेसे सूर्यका अस्त होना बन जाता है। भूमिकी शक्ति अनुसार सूर्यकी किरणें कहीं दूरतक फैलती हैं और कहीं निकट प्रदेशोंतक ही जा पाती हैं। चौमासेमें दिन फलनेपर देख सकते हो । भगोनामें पानी भर देनेपर बीचमें धरा हुआ रुपया ऊंचा उठा दुआ दीखता है । बादलोंमें कभी सूर्य भी इसी प्रकार देरतक प्रकाश कर फिर झट रात होजाती देखी जाती है । बाल गोपालोंतकमें प्रसिद्ध होरही बातको टाल देना और बिलकुल नई बातको गढ लेना उचित नहीं है । " शक्तयः कार्यानुमेयाः " । भूमिकी विलक्षण शक्तियां तुमको भी माननी पडेगी । बडे भारी पापको महामोही जीव भले ही करें, विचारशील विद्वान् ऐसे अयुक्त सिद्धान्ताभासोंको नहीं गढते फिरते हैं।
___ न च वयं दर्पणसमतलामेव भूमि भाषामहे प्रतीतिविरोधात् तस्याः कालादिवशादुपचयापचयसिद्धेनिम्नोन्नताकारसद्भावात् । ततो नोज्जयिन्या उत्तरोत्तरभूमौ निम्नायां मध्यं दिने. छायावृद्धिविरुध्यते । नापि ततो दक्षिणक्षितौ समुन्नतायां छायाहानिरुनतेतराकारभेदद्वारायाः शक्तिभेदप्रसिदेः। प्रदीपादिवादित्यान्न दूरे छायाया वृद्धियटनात् निकटे प्रभातोपपत्तेः।
___ हम जैन सर्वत्र दर्पणके समान सपाट, समतलवाली होरही ही भूमिको नहीं वखानते हैं। क्योंकि अनेक स्थलोंपर ऊंची, नीची, देखी जारही भूमिकी प्रतीतिओंसे विरोध होजायगा। काल आदि निमित्तोंके वशसे उस भूमिका घट जाना, बढ जाना, सिद्ध है । अतः भूमिके नीचे, ऊंचे, आकारोंका सद्भाव होनेसे समरात्र आदि न्यवस्थायें बन जाती है । तिसही कारणसे यानी पृथिवकि ऊंचे नीचे प्रदेशवाली होनेसे उज्जैनसे उत्तर, उत्तर, की ओर निचली भूमिमें दिनके मध्य अवसरपर छायाका बढना विरुद्ध नहीं पड़ता है और उस उज्जैनसे दक्षिणकी ओर अधिक ऊंची होरही पृथिवीमें छायाकी हानि होना भी विरुद्ध नहीं पड़ता है। क्योंकि ऊंचे, नीचे, आकारवाले भिन्न भिन्न प्रदेशों द्वारा उस भूमिकी शक्तियोंके भेदोंकी प्रसिद्धी होरही है । दूर होजानेपर जैसे प्रदीपसे छायाका बढना घटित होजाता है, उसी प्रकार सूर्यसे दूर होनेपर छाया बढ़ जाती है । अतः निकट प्रदेशोंमें प्रातःकाल होना बन जाता है । भावार्थ-इस चित्रा पृथिवीपर अनेक ऊंचे, नीचे, स्थल बन जाते हैं। कुएमें बैठे दुये मनुष्य और पहाडकी चोटीपर चढे हुये मनुष्यकी अपेक्षा घाम और कोहमें जैसे अंतर पड जाते हैं, उसी प्रकार कालवश होगये भमिके ऊंचे, नीचे, स्थानोंपर छायावृद्धि या छायाहानि होजाती है। एकसौ चौरासी गतिओंमेंसे भीतरली गलीमें सूर्यके घूमनेपर दिन बढ जाता है। प्रभात शीघ्र हो जाता है और पांच सौ दश योजन परे बापरली गली में घूमनेपर यहां भरतक्षेत्र में दिन नेवा होजाता है।