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तत्तापाचन्तामणिः
पृथिवीमें आकर्षणशक्ति माननी ही पडती है । आर्यभट्टने गोलपादमें कहा है कि " यद्वत् कदम्बपुष्पप्रन्थिः प्रचितः समंततः कुसुमैः । तद्वद्धि सर्वजलजैः स्थलजैश्च भूगोलः " आकर्षणशक्ति अनुसार पृथिवीमें सब ओरसे पदार्थ खिचकर चुपट रहे हैं । सिद्धान्तशिरोमणिमें यों कहा है " आकृष्टि शक्तिश्च महीतया यत् स्वस्थं गुरु स्वाभिमुखं स्वशक्त्या, आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात् क पतत्वियं खे" पृथिवीमें आकर्षणशक्ति विद्यमान है, उस निजकी शक्ति करके गुरु पदार्थको अपने अभिमुख बैंच लेती है और अपनेपर टिकां लेती है । वे पदार्थ पडते हुये सारिखे दीखते हैं, वस्तुतः वे खिच रहे हैं । सब ओरसे सम हो रहे आकाशमें यह माटी पृथिवी भला कहां गिरे ! इस आकर्षण शक्तिसे सम्पूर्ण पदार्थ पृथिवीपर गिरकर ठहर जाते हैं । " यो यत्र तिष्ठत्यवनि तलस्था मात्मानमास्या उपरि स्थित च, स मन्यतेऽतः कुचतुर्थ संस्था मिथश्चते तिर्यगिवामनन्ति । अधः शिरस्काः कुदलान्तरस्थाश्छाया मुनुष्या इव नारतोर, अनाकुलास्तिर्यगधः स्थिताश्च तिष्ठन्ति ते तत्र वयं यथात्र" अर्थ यह है कि जो मनुष्य जहां ठहर रहा है वह अपनेको इस पृथिवीके ऊपर ठहरा हुआ और पृथिवीको अपने नीचे स्थिर हो रही मानता है इस कारण पृथिवीके चारों ओर ठहर रहे मनुष्य परस्पर अपनेको वे तिरछा समान मान रहे हैं, यानी अपनेको ऊपर और दूसरोंको नीचे ठहर रहा समझ बैठते हैं। जैसे कि जलके तीरपर खडे होकर मनुष्य नीचे की ओर सिरवाले और ऊपर पृथिवीकी ओर चुपटे हुये पांववाले होते सन्ते छायाको देखते हैं । किन्तु तिरछे, नीचे, स्थित हो रहे वे मनुष्य आकुलतारहित होकर वहीं निवास करते हैं जैसे कि हम यहां सानन्द रहते हैं । आकाशकी ओर गिर नहीं पड़ते हैं और भी कहा है कि " सर्वतः पर्वतारामग्रामचैत्यचयश्चितः । कदम्बकुसुमप्रन्थि: केसरप्रकटैरिव " गोलाध्यायमें कदम्बके फूलकी गांठ समान पृथिवीको सब ओरसे पर्वत, गांव, बाग, नदी समुदाय करके गिरा हुआ माना है । इस भास्कराचार्यजीके कथनपर हमको यह कहना है कि आकर्षणशक्तिको पृथिवीमें भले ही माना जाय । किन्तु इतनी बडी आकर्षणशक्ति पृथिवीमें . नहीं है जो कि समुद्र, पर्वत, आदि महान् स्कन्धोंको खींचती रहे नीचेको नहीं गिरने देवे । पौगलिक पदार्थों में गुरुत्वशक्ति ( भारीपन ) भी विद्यमान है जिससे कि वे अधःपतन स्वभाववाले हैं । चुम्बककी आकर्षणशक्ति सूईको गिरनेसे रोक सकती है, पहाडको गिरनेसे नहीं रोक सकती है। छायाका दृष्टान्त तुम्हारे या नैयायिकके मत अनुसार विषम पडता है, वैशेषिकोंने छायाको तेजोऽभाव माना है । अतः वह तुच्छ पदार्थ गिर नहीं सकता है। जैनसिद्धान्त अनुसार “ छेत्तुं भेत्तु अन्यत्र नेतुं नैव शक्यते" ऐसे गौरवरहित और प्रकाशको रोकनेवाले निमित्तोंसे हो रही छाया मानी गयी है। विषम दृष्टान्तसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है । अन्यथा स्वप्नका दृष्टान्त पाकर ज्ञानाद्वैत या ब्रह्माद्वैत भी साधा जा सकता है, जो कि तुमको अनिष्ट पडेगा । पदार्थों में अनेक शक्तियोंको हम स्वीकार करते हैं । दुप. हरके समय लंकामें मनुष्यकी दो, तीन, अंगुल छाया पडती है । और पूनाके निकट प्रान्तमें बस रहे मान्यखेटसे उत्तरकी ओर निकासबाळे मनुष्योंकी छह बढती जाती है। यों पृथिवीकी गांठको शक्तियों,