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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
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बहती रहेंगी और उस उज्जैनसे दक्षिण ओरसे बह रहीं नदियां सब दक्षिण मुखवालीं ही रहेगीं, उस उज्जैन के पश्चिम बाजूसे बह रहीं नदियां सब पश्चिमको मुख करती हुई और उस उज्जैनसे पूर्व की ओरसे चालू हो रहीं नदियां सब पूर्वमुखवाली ही बहती हुई प्रतीत होनी चाहिये । अर्थात् --गोल वस्तुके मध्यस्थलसे जिस ओरको पानी बह जायगा ठीक उसी ओर सीधी रेखा में चलता रहेगा । पूर्व 1 मुखवाली नदियां दक्षिण या उत्तरकी ओर कथमपि नहीं जा सकेंगी। किन्तु इसके विपरीत एक नदी की भी गति न्यारी न्यारी दिशाओं में हो रही टेढी, मेढी भिन्न भिन्न देखी जा रही है । छोटीसी सिप्रा नदी ही कहीं किसी दिशा की ओर कचित् अन्य दिशाकी ओर मुखकर बह रही है। यदि तुम भूमिकी गहराई के भेदसे नदी की गतिमें भेद हो जाना स्वीकार करोगे, यानी जहां जैसी गहरी भूमि मिल जाती है उधरकी ओर नदी दुलक पडती है । गोल वस्तुमें भी नीचे, ऊंचे प्रदेश हैं ही | ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि यों तो भूगोल के मध्य में महान् अवगाहकी प्रतीति हो जानेका प्रसंग होगा । पृथिवीको गेंद के सदृश गोल या नारंगी के समान माननेवालों के यहां भूमध्यदेश में बडी गहराई मानी ही जायेगी। ऐसी दशा में नदीका बहुतसा जल वहां जावेगा । देखो, नीचे प्रदेशमें जितनी ही गहराई है उतनी ही गहराई ऊपर ले भूगोल में मानना समुचित नहीं। तिस कारणसे तो यह ज्ञात होता है कि ये नदियां भूगोलका अतिक्रमण कर वह रही हैं। ऐसी दशा में नदियों करके भूगोलका विदारण हो जायेगा । अतः इस पृथिवीतलको दर्पण के समान समतल माननेका ही पक्ष अबलम्ब करना युक्त है । पृथिवीको समतल माननेसे एक यह भी लाभ है कि समुद्र, सरोवर आदि की हो रही स्थितीके विरोधका भी परिहार तिस प्रकार चपटी माननेपर हो चुकता है । अर्थात् गोलभूमिपर अरबों खरबों मन समुद्र जल ठहर नहीं पाता है, ढुलक पडेगा गिर पडेगा, द्वीपोंको बहा ले जायगा, कभी कहीं और कदाचित् कहीं समुद्र या तालाब बन जायेंगे, नियत स्थलों पर समुद्र आदिकी स्थिति नहीं रह सकेगी ।
ही एकत्रित हो
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तद्भूमिशक्तिविशेषात्स परिगीयत इति चेत्, तत एव समभूमौ छायादिभेदोस्तु । शक्यं कि वक्तुं लंकाभूमेरीदृशी शक्तिर्यतो मध्यान्हे अल्पछाया मान्यखेटाद्युत्तर भूमेस्तु तादृशी यतस्तदधिष्ठिततारतम्यभा छाया ।
यदि आप भूगोलवादियों कहो कि उस भूमिकी विशेषशक्ति से वह समुद्रादि स्थिति के विरोधका परिहार किया गया बखाना जावेगा, तब तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारणसे यानी भूमिकी शक्तिसे ही समतल भूमिमें छाया, परछाई आदि पड़नेका भेद भी बन जाओ। चूंकि यों कहा जासकता है कि लंका भूमिकी इस प्रकार शक्ति है, जिससे कि दुपहर के समय मध्यान्हमें वहां छोटी छाया पडती है और मनखेडा आदिसे प्रारम्भ कर उत्तरदिशावाली भूमिकी तो उस प्रकारकी शक्ति है जिससे कि भूमिपर अधिष्ठित रहेकी तरतमभाव शोभित होरही छाया पडती है । अर्थात् - तुमको