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__तत्वाचिन्तामणिः
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होनेसे छोटे छोटे मनुष्य गोल भी इस पृथिवीको अपने स्थानसे चक्रके समान चपटी आकारवाली देखते हैं । बात यह है कि मनुष्यकी चक्षुयें बहुत दूर तक लम्बे, चौडे, फैले हुये पदार्थको पूरा नहीं देख पाती हैं । अतः गोल दीखना या चक्रके समान दीखना दोनों ही भ्रान्तिज्ञान हैं। गोल पृथिवी यदि भ्रमण करती हुयी मानी जावेगी तो ध्रुवतारा एक ही स्थानपर नहीं दीखना चाहिये । सूर्यके समान ध्रुवतारा भी घूमनेवाले मनुष्योंको न्यारे न्यारे स्थानपर दीखना चाहिये था। किन्तु ऐसा नहीं है । ध्रुवतारा रातभर एक ही स्थानपर दीखता है । पृथिवीका नाम गौ है। गच्छति इति गौः जो चलती है, अतः वह पृथिवी गौ है, ऐसी पोली, लचर, युक्तियोंसे पृथिवी चलायमान सिद्ध करना शब्दव्यवहारको नहीं समझना है । यों तो अचला, स्थिरा, अनन्ता ये नाम भी पृथिवीके हैं । जो कि असंख्य योजन लम्बी पृथिवीको स्थिर सिद्ध करते हैं । भूगोलवादियोंका कहना है कि किनारेसे देखनेपर दूरवर्ती जहाजका पहिले ऊर्ध्वभाग ( मस्तूल ) दखिता है, इसी प्रकार दूरसे ताड वृक्षको देखकर ऊपरला झप्पा पहिले दीखता है । क्योंकि अधोभाग पृथिवीकी गोलाईकी ओटमें आ जाता है । लल्ल सिद्धान्तमें यह कहा है । " समता यदि विद्यते भुवस्तरवस्तालनिभा बहूच्छयाः कथमेव न दृष्टिगोचरं नु रहो यान्ति सुदूरसंस्थिताः " ऐसी ढीली पोली युक्तियोंको सुन कर हमें हंसी आती है । जब कि सौ हाथ ऊंचे पदार्थको दो कोससे देखनेपर दस हाथका अन्तर पड जाता है । जहाज या तालवृक्षका निचले दस हाथ भाग नहीं दखिता है । इतनेसे ही यदि पृथिवीको गोल मान लिया जावेगा, तब तो भूमि पचास या सौ कोसकी ही सिद्धि हो सकेगी। ऐसी दशामें आगरेको यदि गोलभूमिके ऊपर मान लिया जाय तो कानपुर पृथिवीके नीचे मानना पडेगा। किन्तु कुछ योरपवासिओंने अमेरिका ( न्यूयार्क) को आगरके नीचे स्वीकार किया है । इसी प्रकार सिद्धान्त शिरोमणिके भूलोकाध्यायमें पृथिवीके चपटी होनेमें यह आक्षेप किया गया है कि " यदि समा मुकुरो दरसन्निभा भगवती धरणी तरणिः क्षितेः । उपरि दूरगतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरैरमरैरिव नेक्ष्यते ॥ यदि निशाजनकः कनकाचलः किमु तदन्तरगः स न दृश्यते । उदगमन्ननु मेरुरथांशुमान् कथमुदेति च दक्षिणभागके ॥ २॥” इसका अर्थ यह है कि यदि दर्पणके पेटसारिखी भूमि समतल मानी जायगी, तो पृथिवी के ऊपर बहुत दूर प्राप्त हुआ भी घूमता हुआ सूर्य देवोंके समान मनुष्योंको क्यों नहीं दीखता है ? दूसरी बात यह कही गयी है कि सूर्यकी ओट करनेवाला सुमेरु पर्वत यदि रातको कर देता है तो दृष्टा और सूर्य के अन्तरालमें प्राप्त हो रहा वह सोनेका बना हुआ सुमेरु पर्वत क्यों नहीं दीखता है । तथा मेरुकी आडसे निकलकर सूर्यका उदय माना जायगा तो उत्तर दिशामें सूर्यका उदय होना चाहिये । क्योंकि मेरु उत्तरकी ओर है । शीतकालमें जो पूर्वसे भी हट कर दक्षिणकी ओर सूर्य उदय हो रहा है, वह कैसे भी नहीं हो सकेगा । इस आक्षेपपर हमको यह कहना है कि यहांसे दो हजार कोसके एक योजन अनुसार आठ सौ योजन ऊपर सूर्य है आजकल इतना ऊंचा मनुष्यका जाना दुर्लभ है । हां, देवता अवश्य ही सूर्यको घूमता हुआ देख