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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
लेते हैं । जब यहींसे सूर्य चलता हुआ दीख रहा है तो ऊपर जानेकी क्या आवश्यकता है ? पृथिवी दर्पणके समान समतल ही है। आंखों के देखने का स्वभाव ऐसा ही है, जिससे कि दूरवर्ती पदार्थका ऊपरला भाग दृष्टिगोचर होता है। दूसरी बातपर यह कहना है कि कनकाचलकी ओटमें सूर्यके आ जानेसे कनकाचल कैसे दीख सकता है । रातके समय दीपक यदि भीतकी आडमें आजाय तो क्या भीत दीख जाती है ? " यथा प्रकाशस्थितमन्धकारस्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमस्स्थम्" अन्धकारमें बैठा हुआ पुरुष प्रकाशमें धरे हुये पदार्थको देख सकता है, किन्तु प्रकाश या अन्धेरेमें बैठा हुआ पुरुष अन्धकारमें स्थित पदार्थको नहीं देख सकता है । कणाद, गौतम, आदि ऋषियोंने भी " सर्वेषामेव वर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थितः " माना है । सूर्य जब सुमेरुकी आडमें आ जाता है तो यहांसे एक लाख योजन दूर पहुंच जाता है । किन्तु आंखें सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठि योजन दूरवर्ती पदार्थसे अधिक दूरके पदार्थको नहीं देख सकती हैं । अतः जम्बूद्वीपकी वेदीके ऊपर भ्रमण कर रहा सूर्य जब निषध पर्वतपर आता है तब यहां भरतक्षेत्रसे दीखता है। अतः पूर्व दिशासे उदय होना माना जाता है और पश्चिम निषध के ऊपर पहुंचनेपर हम लोगोंको सूर्य नहीं दीख पाता है । सूर्यकी किरणों के नहीं पहुंचनेसे यहां रात हो जाती है। यही उदय, अस्त या दिन, रात, होनेका बजि है । किरणें पहुंचने या फैलनेका सिद्वान्तदृष्टि से यह विचार है कि सूर्य, अग्नि या प्रदीप अपने परिमित लम्बे, चौडे, स्वकीयशरीरमें ही नियत है। उनके निमित्तले यहां फैल रहे भिन्न पुद्गलोंकी चमकीली पर्यायें हो जाती हैं। सूर्य देशसे यहां कोई किरणें नहीं आती है। यूरोपके कतिपय विद्वानोंने भी सूर्यका घूमना और पृथिवीकी स्थिरता सिद्ध करनेके लिए अब अनेक युक्तियां उपस्थित की हैं । विशेषज्ञ विद्वान् इस विषयका गम्भीर अन्वेषण कर सकते हैं ।
कथं चास्थिरेपि भूगोले गंगासिंवादयो नद्यः पूर्वापरसमुद्रगामिन्यो घटेरन् ? भूगोलमध्यतः प्रभवादिति चेत्, किं पुनर्भूगोलमध्यं ? । उज्जयिनीति चेत्, न ततो गंगासिंधवादीनां प्रभवः समुपलभ्यते । यस्मात्तत्प्रभवः प्रतीयते तदेव मध्यमिति चेत्, तदिदमतिव्याहतं । गंगाप्रभवदेशस्य मध्यत्वे सिन्धुप्रभवभूभागस्य ततोतिव्यवहितस्य मध्यत्वविरोधात् । स्वबाह्यदेशापेक्षयात्वस्य मध्यत्वे न किंचिदमध्यं स्यात् स्वसिद्धान्तपरित्यागचोज्जयिनीमध्यवादिनां।
दूसरी बात हम भूगोलभ्रमण वादियोंसे यह पूंछते हैं कि भूगोलको अस्थिर माननेपर गंगा, ब्रह्मपुत्र, या सिन्धु, नर्मदा, आदि नदियां भला पूर्वसमुद्रकी ओर और पश्चिमसमुद्रकी ओर जारहीं कैसे घटित हो सकेंगी ? गोल पृथिवी के संचलन होनेपर यहां वहां अस्तव्यस्त होकर फैल जावेंगी, जैसे कि घूमते हुये लठ्ठपर या घूम रही चाकीपर बहा दिया गया पानी यहां वहां कहीं भी विदिशाओंमें वह निकलता है। यदि तुम भूगोलवादी यों कहो कि भूगोलके मध्यसे इन नदियोंकी उत्पत्ति