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________________ ५५६ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके किया नाता है । इतनी चौडी पृथिवी अपनी धुरी पर या सूर्यका चक्कर देती हुई घूमती रहती है। अन्य नक्षत्र या प्रह भी स्वकक्षामें घूमते रहते हैं । " ततोऽपराशाभिमुखं भपजरे सखेचरे शीघ्रतरे भ्रमत्यपि । तदल्पगत्येन्द्रदिशं नभश्चराश्चरन्ति नीचोच्चतरात्मवर्मसु" । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उत्तरकी ओरसे भूमण्डलके इतने ग्यारहसौ - वीस योजन चौडे परिमाण होनेका भतिक्रमण हो रहा है। उस ग्यारहसौ बीस योजन चौडाईसे अधिक परिमाणवालेकी प्रतीति हो रही है । उस ग्यारहसौ बीसके सौमे भाग केवल कुछ अधिक ग्यारह योजन ११ योजनके ही समतल हो रहे भूभागकी प्रतीति नहीं होती है। कुरुक्षेत्र आदि स्थानोंमें बारह योजन आदि प्रमाणवाली या इससे भी अधिक समतल ( सपाट ) हो रही पृथिवीकी भी अच्छी प्रसिद्धि हो रही है । यदि उस बारह आदि योजन प्रमाण समतलसे पुनः सौगुना चौडा भूगोल कल्पित किया जायगा तब तो अनवस्थाका प्रसंग हो जायगा। भावार्थ-भूगोलवादियोंने पृथिवीकी चौडाई ग्यारहसौ वीस योजन स्वीकार की। किन्तु यह ठीक नहीं बैठता है। उत्तरकी ओर पृथिवी अधिक विस्तारवाटी माननी पडेगी। दूसरी बात यह है कि गोलपदार्थका सौमा भाग समतल दीखा करता है। सिद्धान्तशिरोमणिमें कहा है कि " समो यतः स्यात्परिधेः शतांशः पृथ्वी घ पृथ्वी नितरां तनीयान् । नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना समेत्र तस्य प्रतिभात्यतः सा" इसका अर्थ यह है कि जिस कारण गोलपरिधिका सौमा भाग सम दीखा करता है, यह पृथ्वी बडी लम्बी, चौडी, मोटी है और मनुष्य अत्यन्त छोटा है। उस पृथिवीकी पीठपर प्राप्त हो रहे उस मनुष्यको थोडी दूर दृष्टि जानेसे इस कारण वह पृथ्वी सनत्ल ही दीखती है। इस नियम अनुसार केवल एक योजनका पांचवा भाग अधिक ग्यारह योजन ही समतल भूमि दीखनी चाहिये । किन्तु कुरुक्षेत्र (पानीपत ) आदिमें बारह, चौदह, वीस योजनवाले भी समतल ( मैदान ) पाये जाते हैं । सिद्धान्तशिरोमणि गणिताध्यायमें " प्रोक्तो योजनसंख्यया कुपरिधिः सप्तांगनन्दाब्धयः । तयासः कुभुजंगसायकभुवोऽथ प्रोच्यते योजनम् । याम्योदकपुरयोःपलान्त हतं भूवेष्टनं भांशहृत् । तद्भक्तस्य पुरान्तराधन इह ज्ञेयं समं योजनम् ॥ १ ॥ इस श्लोक द्वारा पृथिवी की परिधि चार हजार नौ सौ सडमठ ४९६७ योजन' और व्यास पन्द्रह सौ इक्यासी १५८१ योजन बताया है। कोई यूरोपनिवासी पण्डित सात हजार नौ सौ बारह मील ७९१२ मील पृथिवीका व्यास मानते हैं । अन्य इससे भी न्यून या अधिक स्वीकार करते हैं । इस प्रकार कोई ठी। पृथिवी के नापकी व्यवस्था नहीं हो सकी है। अनेक विद्वानोंके परस्पर विरुद्ध मन माने नापोंसे पृथिवीके परिमाणकी यथार्थ व्यवस्था नहीं समझी जायगी । वस्ततः यह रत्नप्रभा पृथिवी सात राजू लम्बी, एकराजू चौडी, और एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी समतल है । कचित् इसके प्रदेश ऊंचे, नीच, भी हो गये हैं। गैंद या नारंगीके समान गोल माननेपर अनेक दोष आते हैं । सूर्यसिद्धान्तों जो यह लिखा है कि " अल्पकायतया माः स्वस्थानावितो मुखम् , पश्यन्ति वृत्तामध्येतां चक्राकारां वसुन्धराम् ” पृथिवी की अपेक्षा मनुष्योंका अत्यल्प शरीर
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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