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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः ध्रुव तारोंको छोडकर सम्पूर्ण ज्योतिषियोंका भूगोलसे ऊपर, नीचे, भ्रमण होरहा है, इस प्रकार भूभ्रमणवादी विद्वान् बढिया कह रहे हैं । सूर्यसिद्धान्त ग्रन्थमें लिखा है " ध्रुवोन्नतिर्भचक्रस्य नतिर्मेलं प्रयास्यतः । निरक्षाभिमुखं यातुर्विपरीते नतोन्नते" उत्तरीय मेरुकी ओर जानेवाले मनुष्यको ध्रुवतारा ऊंचा उठता हुआ दीखता है और दक्षिणका नक्षत्र मण्डल नीचेको जानेवाला दीखता है तथा दक्षिणीय ध्रुवकी ओर जानेवाले पथिकको इसके विपरीत नीचे, ऊंचे, दीखते हैं। यानी ध्रुवतारा नीचा जारहा है और दक्षिणीय नक्षत्र मण्डल ऊपरको जारहा भासता है । सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थके गोलाध्यायमें “ उदग्ध्रुवं याति यथा यथा नरस्तथा तथा खान्नतमृक्षमण्डलम् उदग्ध्रुवं पश्यति चोन्नतं क्षितेः " मनुष्य जितना जितना उत्तर दिशाकी ओर जाता है, वैसा वैसा दक्षिणभागके नक्षत्र मण्डलको आकाशसे नीचा नम्र होरहे देखता है और उत्तरध्रुवको पृथिवीसे उन्नत उन्नत होते जारहेको देखता है। योरपके अनेक विद्वान् इन बातोंका समर्थन करते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि भूभ्रमणवादियोंका यह चन्द्रमा, मंगल आदि ज्योतिषियोंका ऊपर नीचे घूमना स्वीकार करना भी निराकृत कर दिया गया है। घयोंकि सूत्रकार श्री उमास्वामी आचार्य महाराजने इस सूत्रों " नृलोके" ऐसा सूत्रण किया है । यदि तुम्हारे मन्तव्य अनुसार ज्योतिश्चक्रका ऊपर, नीचे, की ओर भ्रमण माना जावेगा तैसा होते सन्ते तो उस मनुष्य लोकमें ही ज्योतिष्कोका भ्रमण होना नहीं बन सकेगा। घनोदधेः पर्यते हि ज्योतिर्गणगोचरे सिद्ध नृलोक एव, भ्रमणं ज्योतिषामाधः कथमुपपद्यते ? भूविदारणप्रसंगात् । तत एव विंशत्युत्तरैकादशयोजनशतविष्कम्भत्वं भूगोलथाभ्युपगम्यत इति चेन्न, उत्तरतो भूमंडलस्येयत्तातिकमात् तदधिकपरिमाणस्य प्रतीतेः तच्छतभागस्य च सातिरेकैकादशयोजनमात्रस्यैव समभूभागस्यायतीतेः कुरुक्षेत्रादिषु भूद्वादशयोजनादिप्रमाणस्यापि समभूतलस्य सुप्रसिद्धत्वात् । तच्छतगुणविष्कभभूगोलपरिकल्पनायामनवस्थाप्रसंगात् । पूर्व, पश्चिमकी ओर घनोदधि पर्यन्त तथा दक्षिण, उत्तरकी ओर त्रसनालीकी मर्यादातक जब कि ज्योतिश्चक्रका विषयभूत यह लोक सिद्ध हो चुका है तो ऐसा होते सन्ते फिर मनुष्य लोकमें ही ज्योतिषियोंका ऊपर नीचे भ्रमण होना भला किस तरह युक्तसिद्ध हो सकता है ? यों तो ऊपर नीचे भ्रमण मानने पर पृथिवीके फटजानेका प्रसंग आ जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है। अर्थात्भूगोलका भ्रमण माननेवाले अन्य नक्षत्रमण्डलका भी अपनी कक्षा अनुसार भ्रमण होना स्वीकार करते हैं। सिद्धान्तशिरोमणिके गणिताध्यायमें कहा है कि " सृष्ट्वा भचक्र कमलोद्भवेन प्रहैः सहैतद् भगणादिसंस्थैः । शश्वद्भमे विश्वसृजा नियुक्तं तदन्ततारे च तथा ध्रुवत्वे " । यदि नक्षत्रमण्डल ऊपर नीचे घूमेगा तो पृथिवी अवश्य फट जायगी । यदि भूभ्रमणवादी यों कहें कि तिस ही कारण अर्थात्पृथिवीका विदारण नहीं हो जाय । अतः हमारे यहां ग्यारह सौ बीस योजन चौडा भूगोल स्वीकार
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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