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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके हम पूर्व प्रकरणमें कर चुके हैं । इस कारण उस भूभ्रमणका अवलम्ब लेकरके ज्योतिषियोंको नित्य गतिका अभाव नहीं विचारा ( निर्णय ) जा सकता है । यो प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रमाणसे ज्योतिश्चक्रकी नृलोको गति निीत की जा सकती है । वह ज्योतिष्कों की गति कभी कभी होनेवाली भी नहीं इष्ट की गयी है । क्योंकि गतिका विशेषण देनेके लिये सूत्रकारने " नित्य" शब्दका ग्रहण किया है । अतः तृलोकमें ज्योतिष्कोंकी गति नित्य हो रही मानी गयी है । कतिपय ज्योतिष्कों की हो रही नित्य गतिका बालक बालिकाओंतकको प्रत्यक्ष हो जाता है । तद्गतेनित्यत्वविशेषणानुपपत्तिरध्रौव्यादिति न. शंकनीय, नित्यशद्धस्याभीक्ष्ण्यवाचित्वान्नित्यप्रहसितादिवत् । कोई यहां शंका करता है कि ज्योतिष्कोंकी उस गतिका नित्यपना यह विशेषण नहीं बन सकता है। क्योंकि कोई गति ध्रुव नहीं है । बौद्ध, वैशेषिक, मीमांसक, यहांतक कि जैन भी क्रियाओंको अनित्य स्वीकार करते हैं । नृत्यकारिणीकी झटझट पूर्वक्रियायें नष्ट होरही संती उत्तरक्रियायें उपजती हुई दिखती हैं । “ कर्मत्वऽनित्यमेव " कोई भी क्रिया नित्य कालतक.स्थिर नहीं रह सकती है। क्षणक्षणमें अन्य ही क्रिया होजाती है, ऐसी दशामें ज्योतिष्कोंकी नित्यगति आपने कैसे कही ? बताओ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि नित्य शब्द अभीक्ष्णताका वाचक व्यवस्थित होरहा है, जैसे कि नित्य ही हंसनेवाला देवदत्त है या नित्य बकवाद करनेवाला यज्ञदत्त है, नित्यभोजी बालक है इत्यादि स्थलोंमें नित्यका अर्थ अभीक्ष्णता यानी पुनः पुनः या असकृत् है, देवदत्त नित्य हंसता रहता है, इसका अर्थ शौच जाते, सोते आदि अवस्थाओंमें भी सदा हंसते रहना नहीं है । किन्तु अनेकवार पुनः या धुनः बहुतसी क्रियाओंमें दिनरात बहुभाग अवसरोंपर हंसते रहना है । प्रातःसे लेकर सायंकालतक हंसना ही जब अत्यन्त कष्टसाध्य है, ऐसी दशामें नित्य हंसते रहना तो असम्भव ही समझियेगा। कुछ देरतक हंसते रहनेपर भी शरीर या आत्मामें प्रतिक्षण अनेक हसियां विनशती, उपजती, रहती हैं । इसी प्रकार ज्योतिष्कोंकी गतिमें नित्यका अर्थ पुनः पुनः एकके पीछे झट दूसरी गति, अनेकवार गति यों अभीक्ष्णता करना चाहिये । जैसा कि नित्य हंसना, नित्य बक बक करना, नित्य रोना, नित्य टोटा होना, नित्य पूजन करना आदिमें शोभता है । ऊर्ध्वाधोभ्रमणं सर्वज्योतिषां ध्रुवतारकाः। मुक्त्वा भूगोलकादेवं प्राहुभूभ्रमवादिनः ॥ १३ ॥ तदप्यपास्तमाचार्यैर्नृलोक इति सूचनात् । तत्रैव भ्रमणं यस्मानोवधिोभ्रमणे सति ॥ १४ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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