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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः और अखिल पुरुषों के यहां बाधारहित हैं । यो प्रत्यक्षप्रमाणसे भूभ्रमणका निर्णय नहीं हो सका । अतः आर्यभट्ट पण्डितने जो यह कहा है। " अनुलोम गति स्थः पश्यत्यचल विलोमगं यद्वत् , अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लङ्कायाम् ” नावमें बैठा हुआ अनुकूल सीधा जा रहा मनुष्य किनारेके स्थिर हो रहे वृक्ष, पर्वत, आदि पदार्थोको जैसे उलटी ओरको चलता हुआ देखता है, उसी प्रकार लंकामें अचल ज्योतिष्क मण्डलको पश्चिमकी ओर चलते हुये देखता है। यह आर्यभट्टका कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है । दृष्टान्त विषम है। नाप्यनुमानतो भूभ्रमणविनिश्चयः कर्तु सुशकः तदविनाभाविलिंगाभावात् । स्थिरे भचक्रे सूर्योदयास्तमयमध्यान्हादिभूगोलभ्रमणे अविनाभाविलिंगमिति चेन्न, तस्य प्रमाणबाधितविषयत्वात् पावकानौष्ण्यादिषु द्रव्यत्वादिवत् । भचक्रभ्रमणे सति भूभ्रमणमंतरेणापि सूर्योदयादिप्रतीत्युपपत्तेश्च । न तस्मात् साध्याविनाभावनियमनिश्चयः । प्रतिविहितं च प्रपंचतः पुरस्तात् भूगलभ्रमणमिति न तदवलंबनेन ज्योतिषां नित्यगत्यभावो विभावयितुं शक्यः। नापि कादाचित्कीष्यते गतिनित्यग्रहणात् । तथा अनुमानप्रमाणोंसे भी भूभ्रमणका विशेषतया भले प्रकार निश्चय नहीं किया जा सकता है। क्योंकि उस भूभ्रमणरूप साध्यके साथ अविनाभावको धारनेवाले ज्ञापकलिंगका अभाव है। भू के भ्रमण और ज्योतिश्चक्रकी स्थिरता मान लेनेपर होनेवाले दिन, रात, प्रहण, राशिसंक्रमण, आदि कार्य तो पृथिवीकी स्थिरता और ज्योतिष्कोंका भ्रमण माननेपर भी सुलभतया उपपन्न हो जाते हैं। यदि ज्योतिष्क मण्डलको स्थिर माननेवाला यों कहे कि नक्षत्र मण्डलके स्थिर होनेपर और भूगोलका भ्रमण होते सन्ते सूर्यका उदय होना, सूर्यका अस्त होना, मध्याह्न ( दुपहर ) होना, ग्रहण पड जाना आदि ही अविनाभावी लिंग हैं । ग्रन्थकार कहते हैं, यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस लिंगके साध्यरूप विषयकी प्रमाणोंसे बाधा प्राप्त हो जाती है। जैसे कि अग्निमें अनुष्णता, अदाहकता आदिकी सिद्धि करनेमें प्रयुक्त हुये द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, आदि हेतु बाधित हेत्वाभास हैं । इसी प्रकार तुम्हारे भूभ्रमणके लिंगके विषय हो रहे साध्यकी प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा बाधा उपस्थित हो रही है । दूसरी बात यह है कि ज्योतिष्कचक्रका भ्रमण होते सन्ते भूभ्रमणके विना भी सूर्योदय, सूर्यास्तता आदिकी प्रतीति होना युक्तियोंसे सब जाता है । इससे भी भू का भ्रमण सिद्ध नहीं हो पाता है । तिस कारण हेतुका साध्यके साथ अविनाभाव बन जानास्वरूप नियमका निश्चय नहीं हो सका है। विद्वान् आर्यभट्टने लिखा है। " भपञ्जरः स्थिरो भूरेवावृत्यावृत्य प्रतिदैवसिकौ उद्यास्तमयो सम्पादयति ग्रहनक्षत्राणाम् " सूर्य आदिक सब नक्षत्र मण्डल स्थिर है। पृथिवी ही बार बार घूम घूम कर प्रत्येक दिनमें होनेवाले ग्रह और नक्षत्रोंके उदय और अस्तका सम्पादन करती है । ऐसी युक्ति रहित आर्यभट्टकी प्रतिज्ञायें आदरणीय नहीं हैं । लथा अधिक विस्तारले भूगोलके भ्रमणका खण्डन 10
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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