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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः 33 भरणी नक्षत्र सम्बन्धी पांच तारे चर रहे कहे गये हैं तथा सबके ऊपर स्वातिनक्षत्रका एक तारा चर रहा है। विशेष यह है कि यहां सर्व शब्दसे यदि सम्पूर्ण ज्योतिष्क मण्डल अभिप्रेत है तब तो सबसे नीचे तारे और उनसे तिरानवे योजन ऊंचे नक्षत्र तथा सबके ऊपर शनिश्चर को कहनेवाले सिद्धान्तवचनका इस भरणी नक्षत्रको सबसे नीचे और स्वाती नक्षत्रको सबके ऊपर कहनेवाले सिद्धान्तको अपवाद कथन समझा जाय। हां, यदि " उत्तरदक्खिण उड्डा-धोमज्झे अभिजिमूलसादीय, भरणी कित्तिय रिक्खा चरति अवराणमेवं तु इस त्रिलोकसारसम्बन्धी गाथाकी " अथाकाशे चरतां कियन्नक्षत्राणां दिग्विभागमाह " " अब श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवती कितने ही एक नक्षत्रों की दिशाके विभागको कहते हैं " इस श्री माधवचन्द्र त्रैविद्यकृत उत्थानिका अनुसार केवल नक्षत्रोंका ही दिग्विभाग मानना अभीष्ट होय, तब सर्व नक्षत्रोंके अधः ( भीतर ) भरणी और सर्व नक्षत्रों के ऊपर स्वाती नक्षत्र के विचरनेकी व्यवस्था ठीक बैठ जाती है । यों सम्पूर्ण ज्योतिष्क मण्डलके नीचे तारायें, मध्यमें नक्षत्र, ऊपर शनिश्चर ग्रह, इस सिद्धान्तकी रक्षा भी होजाती है। अभिजित् को भीतरकी ओर और मूलको बाहर की ओर भले ही सम्पूर्ण नक्षत्रोंकी अपेक्षा या सम्पूर्ण ज्योतिष्क मण्डलकी अपेक्षा भी कह देनेसे कोई विरोध नहीं आता है । इस प्रकार संक्षेपते ज्योतिष्क विमानोंकी यह स्मरण अनुसार I आगमोक्त व्यवस्था कर दी गयी है । प्रमाण और नयके वेत्ता विद्वानों करके ज्योतिषियोंकी अन्य विस्तृत व्यवस्थाका भी उपरिष्टात् चिन्तन कर लेना चाहिये । प्रन्थकर्त्ता के एक एक अक्षरपर तर्कबादका ं वक्खर चढवानेके लिये उत्सुक बैठे हुये प्रतिवादियोंके सम्मुख विप्रकृष्ट विषयों का इतना ही निरूपण करना पर्याप्त है। श्रद्धालु श्रोता अन्य विद्यानन्द महोदय, त्रिलोकसार, आदि प्रन्थोंसे अपनी विस्तृत अभिलाषाको परितृप्त करें । ५५१ प्रदक्षिणा नित्यगतय इति वचनात् किमिष्यत इत्याह । कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि ज्योतिष्क देवों के लिये सुदर्शन मेरुकी प्रदक्षिणा देते रहना और नित्य गतिमान् बने रहना इस सूत्र प्रतिपादित वचन से श्री उमास्वामी महाराजको कौनसा प्रमेय अभीष्ट हो रहा है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी समाधान वचनको कहते हैं । मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयस्त्विति निवेदनात् । नैवाप्रदक्षिणा तेषां कादाचित्कीष्यते न च ॥ ११ ॥ गत्यभावोपि चानिष्टं यथा भूभ्रमवादिनः । भुवो भ्रमणनिर्णीतिविरहस्योपपतितः ॥ १२ ॥ इस सूत्र में कहे गये सम्पूर्ण पद इतरका व्यवच्छेद करते हुये सफ़ल हैं, निरर्थक नहीं । देखो, मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुये ज्योतिष्क नित्य गतिवाले हैं, इस प्रकार सूत्रकर्त्ता करके निवेदन करनेसे
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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