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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
मोटे सवरे आकाशमें ने इस दौ सौ छप्पन प्रमाणां गुलों के वर्गका जगत्प्रतर प्रदेशों में भाग देने पर प्राप्त हुई संख्या प्रमाण ज्योतिषी देव या उन देवों के संख्यातवें भाग प्रमाण ज्योतिष्क विमान निवस रहे हैं। एक एक विमानमें हजारों, लाखों यों संख्याते देव रह जाते हैं। जैसा कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवतीने सम्पूर्ण विमानोंमें अकृत्रिम बन रहे अनादि अनन्त अकृत्रिम चैव्यालयों को इस गाथा करके नमस्कार किया है। " बेसइछप्पण्णंगुल कदिहिदपदरस्त संखभागमिरे, जोइसजिणंदगेहे गणणातीदे मंसामि " ।
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स घनोदधिपर्यंतो नृलोकेऽन्यत्र वा स्थितः । सिद्धस्तिर्यगसंख्यातद्वीपांभोधिप्रमाणकः ॥ ८ ॥
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और वह ज्योतिष्क विमानोंका व्यूह मनुष्य ठोकमें अथवा मनुष्य लोकसे बाहर भी तिरछा असंख्यात द्वीप और असंख्याते सम्पूर्ण समुद्रप्रमाण लम्बा, चौडा, होकर घनोदधिपर्यन्त व्यवस्थित हो रहा सिद्ध है । अर्थात् – मध्यलोकस्थ त्रप्सनाली सम्बन्धी एक सौ दश योजन मोटे आकाश भागमें पूर्व, पश्चिम, बारह योजन मोटे वातवलयको छोडकर लोकपर्यन्ततक फैला हुआ है । और दक्षिण, उत्तरमें, त्रसनालीतक ज्योतिषचक्र स्थित है। यानी सात राजू लम्बा, एक राजू चौडा, और मेरुसम एक लाख चालीस योजन ऊंचा मध्यलोक है । दक्षिण और उत्तरसे तीन तीन राजू स्थावर लोकके भागको घटा कर इसके ठीक बीचमें एक राजू लम्बा, एक राजू चौडा, त्रसनालीका भाग है। उस त्रसनालीमें पूर्व और पश्चिम बारह योजन मोटे वातवलय प्रमाण कमती एक राजू चौडे और उत्तर दक्षिणमें पूरे एक राजू लम्बे तथा एक सौ दश योजन ऊपर नीचे मोटे चौकोर आकाश प्राङ्गण में ज्योतिश्चक्र प्रतिनियत है । मध्यलोक सम्बन्धी पूर्व, पश्चिम, लोकप्रान्तमें पांचयोजन मोटे पहिले मनोदधिवातपर्यंत ज्योतिष्क विमान फैल रहे हैं। हां, दक्षिण, उत्तरकी ओर त्रसनालीसे घनोदधि वात निकट नहीं है । तीनतीन राजू दूर है।
सर्वाभ्यंतरचारीष्टः तत्राभिजिदथो बहिः । सर्वेभ्यो गदितं मूलं भरण्योधस्तथताः ॥ ९ ॥ सर्वेषामुपरि स्वातिरिति संक्षेपतः कृता । व्यवस्था ज्योतिषां चिंत्या प्रमाणनयवेदिभिः ॥ १० ॥
नृलोक सम्बन्धी उस ज्योतिष्क मण्डलमें सम्पूर्ण स्वकीय ज्योतिष्क विमानोंके अभ्यन्तर ( भीतर ) चरनेवाला अभिजित् नामका नक्षत्र इष्ट किया गया है और अपने अपने द्वीप या समुद्रसम्बन्धी सम्पूर्ण ज्योति के बाहर चर हा मूलनामका नक्षत्र याहा गया है। तिली प्रकार सबसे नीचे